पद्मा अग्रवाल
बैंगलोर (कर्नाटक)
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थोड़ा-थोड़ा आजाद हो गई हूँ,
मैं थोड़ी-थोड़ी जिम्मेदारियों से आजाद हो गई हूँ
अब मैं ६० पार कर सारे जहाँ की अम्मा बन गई हूँ,
बालों में चाँदी यहाँ–वहाँ उतर आई है, आँखों पर ऐनक चढ़ गई है
नजाकत दूर कहीं होती जा रही है।
कहते हैं सब-मोटी हो गई हूँ,
सुबह जल्दी नहीं होती है उठने की, रात की भी नहीं चिंता है होती,
नये-नये पकवानों की अब फरमाइश भी नहीं होती।
परिंदे उड़ान भर कर दूर जा बसे हैं,
अब तो रोज बस उनके फोन का इंतजार बना रहता है
चिड़ियों और पौधों से बातें करके मन हल्का कर लेती हूँ,
पौधों को नहलाती-धुलाती रहती हूँ।
रोज शाम को विचरने के लिए निकल जाती हूँ,
आवारगी से, यहाँ-वहाँ विचरती रहती हूँ
मैं अब किसी से नहीं डरती हूँ,
कहते हैं वो भी… अब मैं बदल-सी गई हूँ
थोड़ी-थोड़ी जिम्मेदारियों से आजाद हो गई हूँ।
लिखने लगी हूँ कहानी,
करने लगी हूँ टूटे-फूटे शब्दों को जोड़ कर कविताएं
फिर भी आइने में खुद को देख कर, जब-तब सँवरती हूँ,
वक्त नहीं था पहले, अब पहले-सा वक्त नहीं ..
खोजती रहती हूँ नित-नए दोस्त, उन्हीं में मशगूल रहती हूँ,
थोड़ी-थोड़ी जिम्मेदारियों से आजाद हो गई हूँ।
मन सबल हो गया है मेरा लेकिन, अब एहसास हो गया है निर्बल
पीड़ा देख कर हर किसी की,
मैं मन ही मन सिसक उठती हूँ।
सिर्फ माँ थी पहले… अब नानी बन गई हूँ,
थोड़ी-थोड़ी जिम्मेदारियों से आजाद हो गई हूँ॥