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नारी, तुम अब उड़ना सीखो

डॉ. विद्या ‘सौम्य’
प्रयागराज (उत्तर प्रदेश)
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नारी तुम अब उड़ना सीखो,
छोड़ो, सौंदर्य और साज-श्रृंगार
देह के हैं सब माया-जाल,
है नश्वर, ऐ सुनो मानवी
धूल फांकते नंगे पैरों से,
कंकड़-कंकड़, पत्थर-पत्थर
पाँवों को घिसना सीखो,
नारी तुम अब चलना सीखो।

नभ से नहीं नभचर से तुम,
दाने- दाने को चुगना सीखो
चलो वहाँ पर धूप जहां पर,
काले होंगे तेरे, रूप तो क्या ?
मैले होंगे तेरे, वसन तो क्या ?
देखो तृण पत्तों का तपना
कुम्हलाकर फिर खिलना सीखो,
नारी तुम अब जलना सीखो।

पथरीले पंथों से होकर,
जैसे बहती है नदी की धारा
चमकीली रेतों से मिलकर,
जैसे बनते है द्वीप, किनारा
तिरते सागर में लहरों पर,
जैसे मिट जाते खेवनहारा।
लड़कर फिर तुम मिटना सीखो,
नारी तुम अब उगना सीखो॥