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ना जाने कितने!

डॉ. विद्या ‘सौम्य’
प्रयागराज (उत्तर प्रदेश)
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ना जाने कितने…
अनकहे प्रश्नों को लिए,
खड़ी हूँ धरा पर दबी हुई,
दूब-सी…।

अवनी में दिख रही हैं, जो दरारें सभी,
हमने ही आकर खोली थी
मन की गाँठें कभी…
तपती दुपहरी में ही नहीं, कर्कशा धूप में भी,
हरी हूँ…
अपनी ही उर्वरता से, अपने ही रूप में भी,
जली नहीं नभ से गिरे ओलों और वृष्टि से,
अदम्य साहस से भरी…
डटी हूँ… अपनी ही जिजीविषा से भी।

ना जाने कितनी…
आशंकाओं को लिए,
खड़ी हूँ धरा पर दबी हुई,
दूब-सी…।

उग रही हूँ…
ओस की बूँदों के संग- संग,
भर रही हूँ दर्रे-दर्रे में राग और रंग
कभी सोचती हूँ मन की अनंत गहराइयों से,
कभी सीखती हूँ नभ की असीम ऊँचाइयों से
ना जाने कितने जन्मों तक तपना है मुझे,
यह जीवन संग्राम है, लड़ना ही है मुझे
कभी-कभी आ जाते हैं अनागत,
सर्द हवाओं के झोंके…
दुर्बल नहीं हूँ, हरी-भरी दूर्वा समरूप हूँ मैं।

ना जाने कितनी वेदनाओं को लिए,
खड़ी हूँ धरा पर दबी हुई,
दूब-सी…॥