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परिवार ही संस्कार-सुकून-समाज का केंद्र

ललित गर्ग

दिल्ली
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स्पष्ट है कि किसी भी समाज का केंद्र परिवार ही होता है। परिवार ही हर उम्र के लोगों को सुकून पहुँचाता है। दरअसल, सही अर्थों में परिवार वह संरचना है, जहां स्नेह, सौहार्द, सहयोग, संगठन, सुख-दुःख की साझेदारी, सबमें सबके होने की स्वीकृति जैसे जीवन-मूल्यों को जीया जाता है। जहां सबको सहने और समझने का अवकाश है, अनुशासन के साथ रचनात्मक स्वतंत्रता है। निष्ठा के साथ निर्णय का अधिकार है। जहां बचपन सत्संस्कारों में पलता है। युवकत्व सापेक्ष जीवन-शैली में जीता है। वृद्धत्व जीए गए अनुभवों को सबके बीच बांटता हुआ सहिष्णु और संतुलित रहता है। ऐसे परिवार रूपी परिवेश में सुखी जीवन का स्रोत प्रवहमान रहता आया है, लेकिन आज इस परिवार की संरचना में आँच आई हुई है। अपनों के बीच भी पराएपन का अहसास पसरा हुआ है। विश्वास संदेह में उतर रहा है। कोई किसी को सहने और समझने की कोशिश नहीं कर रहा है। इन स्थितियों पर नियंत्रण की दृष्टि से ‘विश्व परिवार दिवस मनाए’ जाने की प्रासंगिकता आज अधिक सामने आ रही है।

परिवार सामाजिक संगठन की मौलिक इकाई है। परिवार के अभाव में मानव समाज के संचालन की कल्पना भी दुष्कर है। प्रत्येक व्यक्ति किसी-न-किसी परिवार का सदस्य रहा है या है। उससे अलग होकर उसके अस्तित्व को सोचा नहीं जा सकता है। भारत की संस्कृति और सभ्यता कितने ही परिवर्तनों को स्वीकार करके परिष्कृत कर ले, लेकिन परिवार संस्था के अस्तित्व पर कोई भी आँच नहीं आई। परिवार बने और बन कर भले टूटे हों, लेकिन उनके अस्तित्व को नकारा नहीं जा सकता है। उसके स्वरूप और उसके मूल्यों में परिवर्तन हुआ, लेकिन उसके अस्तित्व पर प्रश्नचिह्न नहीं लगाया जा सकता है। हम चाहे कितनी भी आधुनिक विचारधारा में हम पल रहे हों, लेकिन अंत में अपने संबंधों को विवाह संस्था से जोड़ कर परिवार में परिवर्तित करने में ही संतुष्टि अनुभव करते हैं। बावजूद इसके क्यों परिवार बिखर रहे हैं, परिवार संस्था के अस्तित्व पर क्यों धुंधलके छा रहे हैं-इस तरह के प्रश्न समाधान चाहते हैं। भारत में सर्वोच्च न्यायालय ने इसी समाधान के लिए हिन्दू विवाह परम्परा को बल देने की बात हाल ही में कही है।
सच है कि, आज संयुक्त परिवार बिखर रहे हैं। एकल परिवार भी तनाव में जी रहे हैं। बदलते परिवेश में सौहार्द का ग्राफ नीचे गिर रहा है, जो गंभीर समस्या है। परिवार से पृथकता तक तो ठीक है, किंतु उसके मूल आधार स्नेह में भी खटास पड़ जाती है। स्नेह सूत्र से विच्छिन्न परिवार, फिर ‘घर’ के दिव्य भाव को नहीं जी पाता, क्योंकि तब उसकी दशा ‘परिवार के सदस्यों की परस्पर अजनबी समूह’ जैसी हो जाती है। समस्या आदिकाल से है, किंतु वह अब तक इसलिए है, क्योंकि अधिकांश परिवारों ने समाधान के अति सरल उपायों पर विचार ही नहीं किया या फिर यों कहें कि, अपनी रूढ़िवादिता की झोंक में विचार करना पसंद ही नहीं किया। मेरे विचार से, स्नेह, सम्मान और स्वतंत्रता की सूत्रत्रयी ही समाधान का मूल है। यदि तीनों का परस्पर अंतर्संबंध समझकर उसे आचरण में उतार लें, तो घर को ‘स्वर्ग’ बनते देर नहीं लगेगी। जब घर स्वर्ग बनने लगेंगे तो दुनिया, प्रकृति एवं पर्यावरण भी स्वर्गमय बन जाएंगे। दुनियाभर का धन- दौलत व्यक्ति को वह सुकून नहीं दे सकता, जो स्नेह और सम्मान का मधुर भाव देता है।
इन्सान की पहचान उसके संस्कारों से बनती है। संस्कार हमारी जीवनी शक्ति है, यह एक निरंतर जलने वाली ऐसी दीपशिखा है, जो जीवन के अंधेरे मोड़ों पर भी प्रकाश की किरणें बिछा देती है। उच्च संस्कार ही मानव को महामानव बनाते हैं। सद्संस्कार उत्कृष्ट अमूल्य सम्पदा है। मनुष्य के पास यही एक ऐसा धन है, जो व्यक्ति को इज्जत से जीना सिखाता है और यही सुखी परिवार का आधार है। वास्तव में बच्चे तो कच्चे घड़े के समान होते हैं। उन्हें आप जैसे आकार में ढालेंगे, वे उसी आकार में ढल जाएंगे। माँ के उच्च संस्कार बच्चों के संस्कार निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। इसलिए आवश्यक है कि, सबसे पहले परिवार संस्कारवान बनें, माता-पिता संस्कारवान बनें, तभी बच्चे संस्कारवान- चरित्रवान बनकर घर-परिवार की प्रतिष्ठा को बढ़ा सकेंगे। प्रख्यात साहित्यकार जैनेन्द्र जी ने कहा है,-“परिवार मर्यादाओं से बनता है। परस्पर कर्त्तव्य होते हैं, अनुशासन होता है और उस नियत परम्परा में कुछ जनों की इकाई हित के आसपास जुटकर व्यूह में चलती है। उस इकाई के प्रति हर सदस्य अपना आत्मदान करता है, इज्जत खानदान की होती है। हर एक उससे लाभ लेता है और अपना त्याग देता है।”

आज की भोगवादी संस्कृति ने उपभोक्तावाद को जिस तरह से बढ़ावा दिया है, उससे बाहरी चमक-दमक से ही आदमी को पहचाना जाता है। यह बड़ा भयानक है। उससे ही अप-सांस्कृतिक मूल्यों को बढ़ावा मिलता है और ये ही स्थितियाँ पारिवारिक बिखराव का बड़ा कारण बन रही हैं। वही आदमी श्रेष्ठ है जो संस्कृति को शालीन बनाए। वही औरत शालीन है, जो परिवार को इज्जतदार बनाए। परिवार इज्जतदार बनता है, तभी सांस्कृतिक मूल्यों का विकास होता है। उसी से कल्याणकारी मानव संस्कृति का निर्माण हो सकता है। भारत को आज सांस्कृतिक क्रांति का इंतजार है। यह कार्य सरकार तंत्र पर नहीं छोड़ा जा सकता है। सही शिक्षा और सही संस्कारों के निर्माण द्वारा ही परिवार, समाज और राष्ट्र को वास्तविक अर्थों में स्वतंत्र बनाया जा सकता है। इसी उद्देश्य को लेकर श्रद्धेय गणि राजेन्द्र विजयजी के मार्गदर्शन में ‘सुखी परिवार अभियान’ चलाया जा रहा है। अभियान के माध्यम से बदलते पारिवारिक परिवेश पर गंभीरता से चिन्तन-मनन हो रहा है। सौहार्द के इस तरह के प्रयत्न हमारे परिवारों के लिए संजीवनी बन सकते हैं। इससे जहां हमारी परिवार परम्परा और संस्कृति को पुनः प्रतिष्ठापित किया जा सकेगा, वहीं स्वस्थ तन, स्वस्थ मन और स्वस्थ चिन्तन की पावन त्रिवेणी से स्नात होने का दुर्लभ अवसर भी प्राप्त हो सकेगा। जब परिवार ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ के मंत्र को आत्मसात करेंगे, तभी जलवायु परिवर्तन एवं पर्यावरण की विकराल होती समस्याओं से मुक्ति मिल सकेगी। व्यक्ति से परिवार, समाज, राष्ट्र एवं विश्व मानवता का उन्नयन एवं उत्थान संभव है।