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पहला-पहला प्यार…

पद्मा अग्रवाल
बैंगलोर (कर्नाटक)
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रावी अपने दोनों हाथों में शॉपिंग बैग्स पकड़ी हुई खुशी से चहकती हुई पति अर्जुन के साथ बात करती हुई मॉल से निकल रही थी तभी उसकी ऩजर एक स्मार्ट से युवक पर पड़ी। उसको पहचानते ही वह ठिठक गई थी… लेकिन यह क्या… वह तो उन लोगों की तरफ ही आ रहा था। “रावी कैसी हो ?” उसको पहचानते ही वह पहले तो सकपकाई, लेकिन अपने को संभालते हुए पति से बोली,”इनसे मिलिए, ये अंश हैं… आगरा में जब हम लोग रहते थे, तो मेरे नेबर हुआ करते थे…। ” उसके साथ में उसकी सुंदर-सी पत्नी और गोलमटोल बेटा भी था।
औपचारिकतावश उसने कहा, “घर आइए… कल सुबह की मेरी फ्लाइट है…।” वह तेजी से मॉल से बाहर निकल आई थी… उसको देख लेने के कारण उसका दिल बहुत तेजी से धड़क रहा था और हथेलियाँ पसीने से भीग गईं थीं।
गाड़ी का गेट बंद कर लेने के बाद उसने चैन की साँस ली थी। उसकी आँखों के समक्ष अतीत के पन्ने एकबारगी खुल गए थे…१५-१6 साल की सपनीली-सी उम्र पर उसने कदम रखा ही था, कि सामने के बंगले में नए किराएदार आए तो मिलना-जुलना और ताका-झांकी तो स्वाभाविक ही था…। वह आंटी के पास जाया करती और बातें करके अपने घर आ जाया करती…। इस बीच अंश जब उसकी बातों पर मुस्कुराता तो उसे बहुत अच्छा लगता…। अंश पढाकू टाइप…, किताबों से जूझता रहता…। बस, जाने क्यों वह उसे अच्छा लगने लगा था…! वह चाहती कि हर समय वह उसे देखती ही रहे… इसी चक्कर में बॉलकनी तो कभी लॉन या गेट तो कभी खिड़की से उसे देखने की कोशिश करती रहती…। उसने नोटिस किया था, कि वह भी कनखियों से उसे देखा करता… जब वह बॉलकनी पर आती तो वह भी वहाँ कुछ करता दिख जाता… जब वह स्कूल जाने के लिए गेट खोलती तो वह महाशय भी गेट पर कुछ कर रहे होते…।
यदि अंश उसे किसी दिन न दिखाई पड़ता तो वह मायूस हो उठती। उसने गौर किया था कि अंश उसके घर की ओर देखता और यदि वह न दिखती तथा उसे कहीं से छिप कर देखा करती तो वह एकदम उदास और गमगीन सा हो उठता…।
अंश को देख भर लेने से उसका मन प्रसन्न हो उठता और न देख पाने पर गम, बेचैनी और अलग तरह की छटपटाहट महसूस होती रहती…।
एक दिन जब वह स्कूल से लौट कर आ रही थी, तभी अंश से उसकी निगाहें मिल गईं थीं। उसका दिल तेजी से धड़कने लगा था, पलकें भीग उठीं, साँसें बेकाबू हो उठीं थीं… वह समझ नहीं पा रही थी कि अंश को देखते ही उसे क्या हो जाता है… वह तेजी से अपने कमरे में चली गई थी, उसकी साँसें धौंकनी-सी चल रही थी…।
अब वह अंश के सामने पड़ने से बचने लगी थीं। एक दिन वह लॉन में पौधों में पानी डाल रही थी, तो आंटी ने देख लिया…, “क्यों रावी तुम तो अब आती ही नहीं हो… अंश ने कुछ बोल दिया क्या… वह तो ऐसा ही है… आज शाम को जरूर आना, मैंने तुम्हारी फेवरेट आइसक्रीम बनाई है…।”
वह शाम को उनके घर पहुंची ही थी, कि अंश भी बाहर से आ गया था। तभी आंटी का लैंडलाइन फोन बजने लगा और वह अंदर चली गईं… उसकी निगाह अंश की तरफ उठी। पता नहीं, क्यों उसकी निगाहों का ताप सहना मुश्किल हो रहा था… उससे निगाहें मिलते ही वह सिहर उठी थी… अंश की निगाहों में गहरा प्यार था, उलाहना था, शिकायत थी…। वह एकदम घबरा उठी थी… अंश उसे अपलक निहारता जा रहा था… उसका हलक सूख गया था… गले में जैसे कुछ अटक गया हो… जुबान पर जैसे सारे शब्द खो गए हों…। वह नर्वस होकर उठने लगी, तभी अंश ने मजबूती से उसकी हथेली पर अपनी हथेली ऱख दी थी… वह बुरी तरह से कांपने लगी थी… उसकी साँसें बेकाबू हो उठीं… शरीर शिथिल होने लगा… अंश उसके इतने करीब हो गया था, कि उसकी साँसों की तपन वह महसूस कर रही थी…। उसने आवेश में अपनी अंगुलियों के नीचे उसकी अंगुलियां फंसा रखी थी…। उन पलों में वह भी अपने को काबू नहीं कर पाई थी और उसने भी अंश की अंगुलियों को जोर से दबा दिया था…।
आंटी “रावी, रावी” पुकारती रहीं, लेकिन वह तेजी से अपने घर भागती हुई आ गई और अपने कमरे में जाकर लेट गई…। उन पलों की की अनुभूति अनोखी थी… अंश की साँसों की तपिश के अनुभव में बेचैनी थी… बेकरारी थी…। उसके सामने जाने में इतनी झिझक थी कि वह उसके सामने ही नहीं गई थी…। २ दिन के बाद मालूम हुआ कि वह अपने हॉस्टल जा चुका था…।
वह बिल्कुल गुमसुम हो गई थी…। वह बहुत दिन तक पछताती और तड़पती रही थी…। उसका मौन और गुमसुम रहना माँ-पापा के लिए परेशानी का सबब बन गया था…। फिर पापा का ट्रांसफर हो गया… और समय के अंतराल ने यादें धुंधली कर दी थीं…।
“क्या बात है रावी…! पहला प्यार याद आ गया क्या…?”

उसने अपनी बड़ी-बड़ी आँखों से घूर कर पति को देखा तो उसने कान पकड़ कर माफी मांगने की एक्टिंग करते हुए उसकी हथेलियों को अपनी मुट्ठी में बंद कर लिया था…।