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पहाड़ों पर बसी स्त्रियाँ

डॉ. विद्या ‘सौम्य’
प्रयागराज (उत्तर प्रदेश)
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पहाड़ों पर बसी स्त्रियाँ,
अपने घरों में…
संघर्ष की जलाती हैं,अनूठी मशाल….।

रोशनी से दीप्त, पर्वत की श्रृंखलाओं में,
बांध देती हैं, मन की सारी भंगिमाएं
बिखरा कर अल्कों की तन्हाई को,
तृषित नयनों से बैठ…
पर्वत की उप्तकाओं में उगे,
फूलों के मकरंद को अंजुली में,
भर…
मुस्कुराती हैं, गाती हैं, प्रियतम के,
आवाहन गीत…।

पहाड़ों पर बसी स्त्रियाँ,
देह की कोमलता को देकर मात,
टकराती हैं…
चट्टानों की दीवारों से जूझती,
फिरती हैं हवाओं के संग-संग…
मिला देती है, भंवरों की गुंजार में,
अपनी करुणा के सुखद स्वर…
बहने देती हैं अश्कों से उज्ज्वल नीर,
स्वप्न और संघर्ष से संकल्पित,
जीवन की जड़ों को…
एक नई पौध की तरह,
रोपती और सींचती हैं।

पहाड़ों पर बसी स्त्रियाँ,
देह को ढके अचल, आँचल से,
शिख से नख तक नहीं होती हैं
कोमलांगी…
झुर्रियों से ढकी तन की परतें,
मन की पीड़ा को बयां करती हैं
सिसकती है जब रूहें उनकी,
अकेली घने जंगलों में…
जलते पहाड़ों की चट्टानों पर,
बिखरा देती हैं…
स्वर्णिम रश्मियों-सा आँखों का नूर।

पहाड़ों पर बसी स्त्रियाँ,
रंग-बिरंगी पोशाकों से सजी घाटियों में…।
बसा लेती हैं स्वप्नों का स्वर्णिम संसार॥