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पुरखे हमारे पूज्य हैं

पद्मा अग्रवाल
बैंगलोर (कर्नाटक)
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श्राद्ध, श्रद्धा और हम (पितृपक्ष विशेष)…

हिंदू पंचाँग के अनुसार,
माह में होते हैं २ पखवारे
आश्विन (क्वाँर) शुक्ल पक्ष में,
पितृ पक्ष भी एक पखवारा है
जो वर्ष में एक बार ही आता है।

पूर्णिमा से अमावस्या तक,
अपने पूर्वजों को स्मरण करने का
विधान हमारे पुरखों ने खूब बनाया है,
जिसके कारण हम सभी उनको
आज भी करते रहते याद
एवं अर्पित करते हैं अपने श्रद्धा सुमन,
इसको पितृ पक्ष संबोधित करते हैं।

यह श्रद्धा और कर्म का पर्व है,
सुबह-सुबह हम नदी किनारे
या फिर अपने घरों में,
जल, पुष्प एवं काला तिल
जौ और अक्षत् पुरखों का,
नाम लेकर अर्पित करके
उन्हें स्मरण करने की,
हिंदू धर्म की परिपाटी है-
जो अपने पितरों या पुरखों को
को स्मरण करने और श्रद्धा
प्रगट करने के साथ
उनको याद करने की है।

पखवारे में तारीख की तरह ही,
तिथि होती-जैसे अष्टमी, नवमी आदि
हम अपने पूर्वजों के स्वर्गारोहण की,
तिथि को स्मृति में जीवित रख कर उसी तिथि में पूरी श्रद्धा
के साथ श्राद्ध कर्म करते हैं।

ब्राह्मण तो सदा से ही पूज्य है,
उनको आदरपूर्वक विभिन्न
स्वादिष्ट व्यंजन, मिष्ठान आदि,
परोसने के साथ अलग-अलग
जीव जंतुओं जैसे काग, श्वान
गाय और चींटी और भिक्षुक,
को भी सारे व्यंजन प्रदान करके अपनी श्रद्धा प्रगट करते हैं।

उनको आदरपूर्वक दक्षिणा देकर विदा करते हैं,
यह पितृपक्ष हमको अवसर देता
कि हम अपने पूर्वजों को याद करें,
उनके पुण्य कार्यों की चर्चा करें
रिश्तेदार और सगे संबंधियों को,
भी आमंत्रित करके
उन सबके सान्निध्य में
श्राद्ध कर्म सम्पन्न करके,
उनको सम्मान सहित
स्वादिष्ट भोजन करवाते हैं।

भोज तो एक बहाना है, लेकिन
पुरखों को स्मृति में जीवित रखना है
क्योंकि पुरखे हमारे पूज्य हैं,
वह हम सबके लिए देवतुल्य हैं,
तो उन्हें अपनी यादों में जीवित रख
कृतज्ञता पूर्वक श्रद्धा सुमन अर्पित करना ही श्राद्ध कर्म है।

यह हमारा धर्म हमें सिखाता है,
परंतु विडंबना यह है कि
आधुनिकता की आपाधापी में,
व्यस्तता के दौर में श्रद्धा तो लुप्तप्राय: होती जा रही है
अब श्राद्ध के नाम पर,
लकीर पीटी जा रही है।

यह अर्थ युग है… अब तो,
यहाँ तक कि ऑनलाइन भी
पंडित उपलब्ध होते हैं।
जो दक्षिणा लेकर श्राद्ध कर्म,
सम्पन्न करवा देते हैं…॥