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पूर्वजों की स्मृति में किए श्राद्ध का महत्व

राधा गोयल
नई दिल्ली
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श्राद्ध पर्व, पितृपक्ष या कनागत-
बचपन में हमारे लिए श्राद्ध का मतलब होता था ढ़ेर सारे व्यंजन और खीर बनना एवं छककर खाना।
हमने बचपन से ही अपने मायके में पितृपक्ष में पितरों को तर्पण देते हुए (श्राद्ध होते हुए) देखा है। पहले मामा जी के यहाँ देखा। वे पितृपक्ष में हमारे नाना और नानी का श्राद्ध करते थे। हमें अपने नाना-नानी की याद नहीं है, क्योंकि वे बहुत पहले ही भगवान को प्यारे हो चुके थे। मामा जी उनके श्राद्ध पर अपनी बहन को सपरिवार बुलाते थे और २० किलो दूध की खीर बनाते थे। और भी बहुत से व्यंजन बनाते थे। अब यह मत पूछना कि मामा जी क्यों बनाते थे। हमारी मामी का बनाया खाना किसी को भी नहीं भाता था। जो खाता था, बेमन से ही खाता था, इसलिए श्राद्ध के दिन मामा जी खाना बनाते थे।
फिर हमने अपनी माँ को दादा दादी के गुजरने के बाद उनका श्राद्ध मनाते हुए देखा। वो हम चारों बहनों को बुलाती थीं। बहुत बड़े भगोने में २० किलो दूध की खीर बनाती थीं। ढेर सारी पूरियाँ बनती थीं। हम २ बहनें बेलती थीं और खाना परोसती थीं। ४-४ कटोरे (कटोरी नहीं) खीर तो हम सब बहन भाई खाना खाने से पहले खा जाते थे। उसके बाद पूरी खाने का नंबर आता था। वापस जाते हुए माँ डोलची में ससुराल के लिए भी खीर भरकर देती थीं।
शादी के बाद अपने ससुर का श्राद्ध होते हुए देखा, लेकिन वहाँ खीर कभी नहीं बनी क्योंकि मेरे ससुर का जवानी में ही देहांत हो गया था। मैं देखती थी कि सास के मायके वाले भी आते थे। ब्राह्मण के खाना खाने के बाद वे लोग बुक्का फाड़ कर रोते थे और मैं विस्फारित नेत्रों से घूँघट की आड़ से उन्हें देखती थी और सोचती थी कि ये रो क्यों रहे हैं। रोते हुए ही विदा हो जाते थे, लेकिन वे खाना नहीं खाते थे। ताऊ जी, नाना जी सभी आते थे, लेकिन खाना कोई नहीं खाता था। केवल ब्राह्मण खाना खाते थे। मुझे समझ नहीं आता था यह लोग इतना क्यों रो रहे हैं ? यह तो बाद में समझ आया कि एक माँ-बाप के लिए विधवा बेटी की पीड़ा क्या मायने रखती है… वह भी ऐसी बेटी जिसका पति जवानी में ७ बच्चों को छोड़कर दुनिया से चला गया हो।
पहला श्राद्ध मेरे ससुर का होता है। तारीख के हिसाब से मेरी सासू माँ का श्राद्ध ५ अक्टूबर को था। हर बार मैं भी उन दोनों के श्राद्ध पर पहले १० किलो दूध की खीर बनाती थी। आखिरी भूले-बिसरों के श्राद्ध पर भी खीर बनाती थी। अब घर में कोई भी ज्यादा मीठा खाना पसंद नहीं करता, इसलिए ५ किलो दूध की खीर बनाती हूँ। अब भी बनाई, साथ में काबुली चने, सूखे आलू,कचालू, अदरक का लच्छा, मूली का लच्छा, सीताफल की सब्जी, बूँदी का रायता।
अब इतना सुख हो गया है कि मिल-जुल कर काम हो जाता है। खीर, काबुली चने, सूखे आलू, रायता, मूली व अदरक का लच्छा मैंने नीचे बनाया। सीताफल की सब्जी बहू ने ऊपर की रसोई में बनाई और आटा भिगोकर नीचे ले आई। बेटी और बहू ने मिलकर बेड़मी बनाईं। पंडित जी के खाने के बाद सबने एकसाथ भूतल पर बैठकर हर बार की तरह खाना खाया। पंडित जी के खाने के बाद सबसे पहले बेटी को दिया। हमारे यहाँ यह मान्यता है कि बेटी-दामाद और नाती-पोते खा लें तो पितर खुश होते हैं। कितना सच कितना झूठ है, इन सब बातों में किसलिए जाना। अच्छा है कि इस बहाने बेटी दामाद इकट्ठे हो जाते हैं। बच्चों में भी संस्कार पड़ते हैं। कौवों और श्वान को भोजन मिल जाता है। भाद्र मास में कौवी अंडे देती है। उसके बच्चे पितृ पक्ष में भोजन पाकर तंदुरुस्त हो जाते हैं और उनकी बीट से जगह-जगह पीपल और वट जैसे पेड़… जो किसी कलम या बीज लगाने से नहीं उगते, उनकी बीट से अपने आप ही बिना खाद और बीज के स्वतः ही उग जाते हैं।
बहुत से लोग ब्राह्मण भोजन के बाद किसी अनाथ आश्रम में या अंध महाविद्यालय में भी खाना खिला देते हैं या जरूरतमंदों में चीजें बाँटने का भी चलन है। इसी बहाने हमारी पुरानी संस्कृति जीवित रहती है।
एक बात और कि हम लोग गया तीर्थ में भी अपने सास-ससुर का पिंडदान कर चुके हैं। उसके बाद बद्रीनाथ धाम में तो सभी के नाम का तर्पण कर चुके हैं। बद्रीनाथ में पंडित जी ने स्पष्ट कहा था कि ब्राह्मण को भोजन भले ही कराना। जो कुछ देना हो… वह देना, लेकिन संकल्प मत करवाना। लेकिन पति हैं कि हर बार याद दिलाने के बावजूद संकल्प जरूर करवाते हैं। पतिदेव नहीं मानते, तो ठीक है। मैं अब पहले ही अक्षत और पानी रख देती हूँ । कौन बिना बात डाँट खाए। मेरे पति तो वैसे ही कुछ ज्यादा समझदार हैं, और समझदार को समझाना कोई समझदारी की बात नहीं है। अच्छा है कि हम ही समझ जाएँ।