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प्रसादम से खिलवाड़ आस्था पर आघात

ललित गर्ग

दिल्ली
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तिरुपति मंदिर विवाद…

लाखों-करोड़ों हिन्दू श्रद्धालुओं की आस्था के केंद्र तिरुमाला भगवान वेंकटेश्वरस्वामी मंदिर में मिलने वाले लड्डू (प्रसाद) में घी की जगह जानवरों की चर्बी और मछली के तेल के इस्तेमाल की शर्मनाक एवं लज्जाजनक घटना ने न केवल चौंकाया है, बल्कि मन्दिर व्यवस्था पर सवाल खड़े किए हैं। यह मामला जितना सनसनीखेज है, उतना ही आस्था पर आघात करने वाला भी। आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री चंद्रबाबू नायडू ने पहले यह कहा कि तिरुपति मंदिर में मिलने वाले लड्डुओं को बनाने में ऐसी सामग्री का इस्तेमाल किया जाता था, जिसमें पशुओं की चर्बी मिली रहती थी। फिर उन्होंने गुजरात की एक सरकारी प्रयोगशाला से मिली रपट के आधार यह कहा कि लड्डुओं को बनाने में जिस घी का उपयोग होता था, उसमें सचमुच पशुओं की चर्बी, मछली के तेल आदि का प्रयोग होता था। यह घटना हिन्दू पवित्रता एवं मन्दिर संस्कृति को धुंधलाने की कुचेष्टा एवं एक विडम्बनापूर्ण त्रासदी है। अगर प्रसाद के मिलावटी एवं अपवित्र होने की बात सही है तो इससे अधिक आघातकारी, अनैतिक एवं अधार्मिक और कुछ हो ही नहीं सकता। चौंकाने वाली बात यह है कि प्रसाद के तौर इन लड्डुओं का वितरण न केवल श्रद्धालुओं के बीच किया गया, बल्कि भगवान को भी यही लड्डू चढ़ाया जाता था। अब इस मामले में केंद्र एवं प्रांत सरकार के दखल देने मात्र से संतुष्ट नहीं हुआ जा सकता, क्योंकि आस्था से खिलवाड़ करने वाला यह प्रकरण अक्षम्य अपराध है, जिसकी गहन जाँच होनी ही चाहिए, ताकि ऐसे जघन्य कृत्य अन्य मन्दिरों की अस्मिता के धुंधलाने के कारण न बनें।
प्रथम दृष्टया मंदिर प्रबंधन दोषी है, क्योंकि जो मंदिर प्रतिदिन ३ लाख लड्डू बेचकर सालाना ५०० करोड़ ₹ तक लाभ कमाता है, वह क्या इतना सक्षम नहीं कि गुणवत्ता जाँच के लिए एक किफायती प्रयोगशाला ही बना ले ? देश के संपन्नतम मंदिरों में शुमार यह तीर्थ अगर गुणवत्ता व आस्था से समझौता कर रहा है, तो देश के बाकी मंदिरों में क्या हो रहा होगा ?मन्दिरों एवं आस्था स्थलों पर श्रद्धालुओं की आस्था एवं भीड़ से आर्थिक लाभ कमाने की मानसिकता न केवल घिनौनी है, बल्कि शर्मनाक भी है। मंदिर तो भगवान भरोसे चल रहे हैं, पर मन्दिर-प्रबंधन स्वयं को अर्थपति बनाने में जुटा है, यही कारण है कि मन्दिर को धंधा बना दिया गया है। ऐसे मन्दिर प्रबंधकों, पुजारियों एवं पदाधिकारियों की श्रद्धा न तो भगवान के प्रति है और न भक्तों के प्रति। वे तमाम मंदिर, जो अपने यहां से प्रसाद वितरित करते हैं या बेचते हैं, उन सभी को गुणवत्ता, शुद्धता एवं पवित्रता जाँच की व्यवस्था जरूर करनी चाहिए।
बड़ा सवाल यह है कि ये कौन लोग हैं, जिन्हें पवित्रता की परवाह नहीं है। अब सवाल उठता है कि मंदिर प्रबंधन की सफाई या स्वीकारोक्ति को कितनी गंभीरता से लिया जाए ? क्या मंदिर प्रबंधन को अपराध की गंभीरता का अंदाजा है ? देश एवं दुनिया के सबसे चर्चित आस्था स्थल से खिलवाड़ करने वालों के खिलाफ सख्त कार्रवाई जरूरी है। अफसोस की बात है कि मंदिरों में बाहर से चढ़ने वाला प्रसाद तो पहले से ही संदेह के दायरे में रहता है, पर अगर मंदिर की अपनी रसोई में तैयार होने वाले प्रसाद की भी विश्वसनीयता आहत हुई है, तो यकीन मानिए, इंसान फिर किस पर भरोसा करेगा ?, क्योंकि व्यापार में मिलावट तो चल ही रही है, अब भगवान के दरबार में मिलावट से मनुष्यता गहरे रसातल में चली गई है। मूल्यहीनता की यह चरम पराकाष्ठा है। इस चुनौती को स्वीकार करते हुए युद्ध स्तर पर काम करने की आवश्यकता है।
इस खुलासे के बाद लोग अपना गुस्सा एवं आक्रोश भी जाहिर कर रहे हैं। कुछ ऐसा ही १९८४ में भी हुआ था, जब डालडा में चर्बी मिले होने का मामला सामने आया था, लेकिन वह व्यापार का मामला था।
तिरुपति प्रसादम में मिलावट का मामला आस्था का है। भूल, अपराध एवं लापरवाही की नब्ज को ठीक-ठीक समझना जरूरी है। भूल सही जा सकती है, लेकिन लापरवाही एवं आपराधिक सोच को सहन नहीं किया जा सकता। दरवाजे पर बैठा पहरेदार भीतर-बाहर आने-जाने वाले लोगों को पहचानने में भूल कर सकता है, मगर सपने नहीं देख सकता। लापरवाही एवं अपराधिक मानसिकता विश्वसनीयता एवं पवित्रता को तार-तार कर देती है। मन्दिरों पर बुराइयाँ हावी होना चिन्ताजनक ही नहीं, गंभीर खतरों के संकेत हैं। मन्दिर प्रबंधन को अधिक चुस्त-दुरस्त, पारदर्शी एवं नैतिक बनाने की भी जरूरत है। प्रश्न है कि हिन्दू मन्दिरों में ही ऐसे मामले क्यों सामने आते हैं ? क्या मन्दिर प्रबंधन अन्य समुदायों के मन्दिरों या धार्मिक-स्थलों की तरह पवित्र एवं नैतिक देखभाल नहीं कर सकते ?
यह मंदिर भगवान वेंकटेश्वर को समर्पित है। इन्हें भगवान विष्णु का अवतार माना जाता है। मान्यता है कि भगवान वेंकटेश्वर ने लोगों को कलियुग के कष्टों और परेशानियों से बचाने के लिए अवतार लिया था। मान्यता है कि जो व्यक्ति अपने मन से सभी पाप को यहाँ छोड़ जाता है, उसके दुःख देवी लक्ष्मी खत्म कर देती हैं, लेकिन मन्दिर प्रबंधकों एवं प्रसाद निर्माताओं के पापों का क्या हो ? अशुद्ध मिलावटी आपूर्ति के लिए जिम्मेदार ठेकेदार को काली सूची में डालना और उस पर जुर्माना लगाना ही पर्याप्त नहीं है, बल्कि कठोर दण्ड दिया जाना चाहिए। मिलावट विरोधी कानूनों के सबसे कड़े प्रावधान उस पर लागू होने चाहिए और सजा ऐसी मिलनी चाहिए कि मिसाल बन जाए। यह कार्य स्वयं मुख्यमंत्री चंद्रबाबू नायडू को सुनिश्चित करना चाहिए। ऐसे संवेदनशील मामलों में राजनीति तो कतई नहीं होनी चाहिए, आरोप-प्रत्यारोप से भी बचा जाना चाहिए। भावनाओं से खेलने के बजाय शासकों को शासन-प्रशासन के जरिए सुनिश्चित करना होगा कि शुद्धता-गुणवत्ता तमाम जगहों और उत्पादों में बहाल रहे, क्योंकि पवित्रता और करोड़ों हिंदुओं की आस्था को नुकसान पहुंचाकर बहुत बड़ा पाप किया गया है।
यह तो दुर्भाग्यपूर्ण एवं विडम्बनापूर्ण है कि प्रसादम के साथ भी खिलवाड़ हो रहा है, सामान्य जन-जीवन में दूध, घी, मसाले, अनाज, दवाइयां तथा अन्य रोजमर्रा के उपयोग एवं जीवन निर्वाह की शुद्ध वस्तुएं किसी भाग्यशाली को ही मिलती होंगी। भारत के लोगों को न शुद्ध हवा मिल रही है, न शुद्ध पानी और न ही शुद्ध खाने का निवाला, कैसी अराजक शासन व्यवस्था है ? इस भ्रष्ट एवं अनैतिकता की आंधी मन्दिरों तक पहुँच गई है।