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बंगाल में भाषाई ध्रुवीकरण:जातिय संघर्ष की दस्तक तो नहीं ?

प्रो. अमरनाथ
कलकत्ता (पश्चिम बंगाल )
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एक छोटी-सी चिंगारी को शोला बनते देर नहीं लगती, यदि समय रहते उसे बुझा न दिया जाए। ‘बांग्ला पक्खो’ जिस तरह ज़हर उगल रहा है, बंगाल के लिए शुभ संकेत नहीं है। आखिर मणिपुर में जातिय हिंसा यहाँ तक पहुँचेगी, किसी ने सोचा था क्या ?
१५ मार्च २०२३ को पश्चिम बंगाल सरकार ने जो अध्यादेश जारी किया है, उसके बाद से बंगाल में स्थायी रूप से रहने वाले लाखों हिन्दी-उर्दू और संथाली भाषी बंगालियों के लिए डब्ल्यूबीसीएस से मिलने वाली सरकारी नौकरियों के सारे दरवाजे लगभग बंद हो गए हैं। अब तक डब्ल्यूबीसीएस के परीक्षार्थियों के लिए बांग्ला, अंग्रेजी, नेपाली, हिन्दी, उर्दू और संथाली का विकल्प मौजूद था। उक्त अध्यादेश द्वारा हिन्दी, उर्दू और संथाली का विकल्प हटा लिया गया है और इस तरह सभी परीक्षार्थियों के लिए 300 अंकों का बांग्ला का प्रश्न-पत्र अनिवार्य कर दिया गया है।
जो हिन्दी, उर्दू और संथाली भाषी परिवार पीढ़ियों से बंगाल में रह रहे हैं, जिनकी सन्तानें यहाँ की स्थायी निवासी हैं, जो यहीं जन्मे और पले- बढ़े हैं, यहीं की शिक्षण संस्थाओं में शिक्षित हुए हैं, यहीं का मतदाता पहचान पत्र है, आधार कार्ड है, किन्तु उनकी मातृभाषा बांग्ला नहीं है, सिर्फ इसीलिए उन्हें बंगाल में लोक सेवा करने से वंचित कर दिया जाना कहाँ तक न्यायसंगत है ?
१९८१ ई. तक बंगाल में पढ़ने वालों के लिए दसवीं कक्षा तक बांग्ला अनिवार्य थी। बाद में इसे आठवीं तक सीमित कर दिया गया। इतना ही नहीं, हिन्दी माध्यम के विद्यालयों में भी बांग्ला शिक्षकों का बराबर अभाव बना रहा और इसके बाद इस तरह का फरमान। बांग्ला पढ़ाने की व्यवस्था की नहीं, नौकरी के लिए अनिवार्य कर दिया।
कोई भी राजनीतिक दल, सरकार के इस कदम का सीधे विरोध नहीं करेगा क्योंकि, अत्यंत संवेदनशील इस मुद्दे पर बहुसंख्यक बांग्ला भाषियों के मत को कोई भी दल नजरंदाज नहीं कर सकता। भाजपा नेताओं ने प्रस्ताव किया है कि पहले दर्जा दस तक सबके लिए बांग्ला अनिवार्य की जाए, हिन्दी, उर्दू, संथाली माध्यम के विद्यालयों में भी बांग्ला के स्थायी शिक्षकों की नियुक्ति की जाए, उसके बाद इस अध्यादेश को लागू किया जाए, किन्तु यह समस्या का न्यायसंगत समाधान नहीं है। हाँ, ऐसी माँग करके भाजपा ने हिन्दी, उर्दू, संथाली भाषियों पर अपना सकारात्मक प्रभाव जरूर डाला है जिसका लाभ उसे मिलेगा।
अहिन्दी भाषी राज्यों में पश्चिम बंगाल सामाजिक समरसता और सौहार्द की दृष्टि से अन्यतम और दूसरे राज्यों के लिए आदर्श रहा है। बांग्ला नवजागरण से हिन्दी क्षेत्र ने ही नहीं, हिन्दीतर राज्यों ने भी बहुत कुछ सीखा है। धाराप्रवाह संस्कृत बोलने वाले महर्षि दयानंद सरस्वती जैसे गुजराती को कलकत्ते में ही ब्रह्मसमाजी आचार्य केशवचंद्र सेन से हिन्दी सीखने की सीख मिली थी, जिसके फलस्वरूप ‘सत्यार्थ प्रकाश’ हिन्दी में रचा गया और आर्य समाज का प्रसार सुदूर पंजाब तक हो सका। ‘वंदे मातरम्’ के रचयिता बंकिम चंद्र चट्टोपाध्याय ने लिखा, “हिन्दी भाषा की सहायता से भारत वर्ष के विभिन्न प्रदेशों के बीच जो ऐक्य बंधन स्थापित कर सकेंगे, वही लोग वास्तविक भारत-बंधु नाम के अधिकारी होंगे।” हिन्दी का पहला पत्र ‘उदंत मार्तंड’ इसी कलकत्ते से प्रकाशित हुआ था। राजा राममोहन राय ने ‘बंगदूत’ हिन्दी में भी निकाला था। इतना ही नहीं, कलकत्ता विवि में ही प्रथम भारतीय कुलपति सर आशुतोष मुखर्जी के उद्योग से सबसे पहले १९९ ई. में हिन्दी की पढ़ाई शुरू हुई थी और हिन्दी का पहला एम.ए. भी एक बंगाली सज्जन ही थे, जिनका नाम था नलिनी मोहन सान्याल।
इस गौरवशाली परंपरा में आज तक कभी ठहराव नहीं आया। बंगाल के सुसंस्कृत मानस का निर्माण राजा राममोहन रॉय, बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय, ईश्वरचंद्र विद्यासागर, विश्वगुरु रवीन्द्रनाथ टैगोर और महर्षि अरविन्द आदि जैसे मनीषियों की शिक्षाओं के आलोक में ही हुआ है, किन्तु मत की राजनीति ने आज हमारे समाज में जिस तरह का जहर घोलना शुरू कर दिया है, अब वह दिन दूर नहीं कि बंगाल में बढ़ रहा भाषाई द्वेष हमारी हजारों साल की सांस्कृतिक विरासत को तार तार कर देगा।
हिन्दी और बांग्ला का पारिवारिक रिश्ता व्यवहार में भी अत्यंत घनिष्ठ रहा है। दोनों बहनों ने लगभग आधी शब्दावली संस्कृत से ली है। दोनों का सामंजस्य सदियों पुराना है। यदि सचेत होकर अध्ययन करें तो १५ दिन के भीतर बांग्ला का कार्यसाधक ज्ञान अर्जित किया जा सकता है। थोड़े हेर-फेर के साथ अधिकांश शब्द दोनों भाषाओं में प्रचलित हैं। हिन्दी में दही है तो बांग्ला में ‘दोई’, हिन्दी में मिठाई है तो बांग्ला में ‘मिश्टी’, हिन्दी में लौकी है तो बांग्ला में ‘लौक’, हिन्दी में मूली है तो बांग्ला में ‘मूलो’, हिन्दी में बैगन है तो बांग्ला में ‘बैगून’, हिन्दी में प्याज है तो बांग्ला ‘पिंयाज’, हिन्दी में आंवला है तो बांग्ला में ‘आमलोकी’, हिन्दी में दुकान है तो बांग्ला में ‘दोकान’, हिन्दी में जंगला है तो बांग्ला में ‘जानला’, हिन्दी में दरवाजा है तो बांग्ला में ‘दरजा’, हिन्दी में मौसी है तो बांग्ला में ‘मासी’, हिन्दी में भौजी है तो बांग्ला में ‘बौदी।’ अनेक शब्द दोनों में समान रूप से प्रचलित हैं, सिर्फ अर्थ मामूली रूप से बदल जाते हैं जैसे हिन्दी का पिता, बहन, दादी बांग्ला में क्रमश: बाबा, बोन, दीदा हो जाते हैं। बांग्ला भाषियों के सामने भी हिन्दी सीखने में एक ही समस्या आड़े आती है, हिन्दी का लिंग भेद। बांग्ला में लिंग भेद नहीं होता। इसीलिए बंगालियों के सामने लिंग निर्धारण कठिन होता है। जैसे हिन्दी में होता है “मैंने भात खाया” और “मैंने रोटी खायी।” इसे बांग्ला में कहेंगे, “आमी भात खेयेछि” और “आमी रूटि खेयेछि।” बांग्ला के दोनों वाक्यों में क्रिया ‘खेयेछि’ में कोई परिवर्तन नहीं हुआ। बांग्ला भाषियों को खाया और खायी का भेद पता करने में कठिनाई होती है। इसके अलावा दोनों भाषाओं की लिपियाँ भी ब्राह्मी से ही विकसित हुई हैं और कोई भी चाहे तो कुछ घंटों में ही एक-दूसरे की लिपियाँ सीख सकता है। ऐसी दशा में डब्ल्यूबीसीएस की परीक्षा में शामिल होने के इच्छुक हिन्दी, उर्दू और संथाली भाषी परीक्षार्थियों के लिए बांग्ला भाषियों की तरह बांग्ला के ३०० अंकों के प्रश्न-पत्र की अनिवार्यता जानबूझ कर उनके रास्ते में अवरोध उत्पन्न करना है और उन्हें बंगाल की मुख्य धारा में शामिल होने से रोकना है। हम देखते हैं कि यूपीएससी की परीक्षा उत्तीर्ण करके बंगाल में शीर्ष प्रशासनिक पदों पर बैठे अनेक गैर-बांग्ला भाषी अधिकारियों को भी बांग्ला का सामान्य कार्यसाधक ज्ञान ही होता है। वैसे भी भाषा-ज्ञान से ज्यादा महत्व उनकी योग्यता और प्रशासनिक क्षमता को मिलनी चाहिए।
ममता बनर्जी की त्रिणमूल सरकार अपनी समृद्ध विरासत के अनुकूल आज भी बंगाल के गैर बांग्ला भाषियों के प्रति उदारता का व्यवहार करती रही है। यहाँ २ हजार से भी ज्यादा हिन्दी माध्यम के विद्यालय तो हैं ही, बिरसा मुंडा हिन्दी महाविद्यालय जैसे महाविद्यालय तथा हिन्दी विश्वविद्यालय हावड़ा जैसे विश्वविद्यालय भी हैं, जहाँ सभी विषयों की शिक्षा हिन्दी माध्यम से दी जाती है। इसी तरह उर्दू और संथाली माध्यम से भी शिक्षा देने की पूरी व्यवस्था बंगाल में है। इन सुविधाओं का लाभ उठाकर संथाली भाषी, उर्दू भाषी और हिन्दी भाषी विद्यार्थी अपनी मातृभाषाओं के माध्यम से ऊँची से ऊँची तालीम हासिल करते रहे हैं और इस तरह प्रकारान्तर से बंगाल की तृणमूल सरकार से उपकृत होते हुए उसे शुभेच्छाएं भी देते रहे हैं, किन्तु कुछ निहित स्वार्थ वाले लोगों के बहकावे में आकर सरकार ने जो अध्यादेश लागू किया है, उससे बंगाल की समरसता में दरार पड़ने की ही नहीं, तूफान आने की भी संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता।
आश्चर्य यह है कि हिन्दी-बांग्ला के बीच दरार डालने वालों को अंग्रेजी के थोपे जाने से कोई एतराज नहीं है। हिन्दी उन्हें साम्राज्यवादी लगती है, मगर विदेश से आई अंग्रेजी नहीं। डब्ल्यूबीसीएस की इस परीक्षा में प्रारंभिक से लेकर मुख्य परीक्षा तक अंग्रेजी अनेक स्तर पर और अनेक रूपों में लागू है। प्रारंभिक परीक्षा में ही ३०० अंकों का अंग्रेजी का प्रश्न-पत्र अनिवार्य है। मुख्य परीक्षा में भी २५० अंकों का पहला प्रश्न पत्र ‘इंग्लिश एस्से ऐंड कंपोजीशन’ का ही है। बंगाल में सेवा देने वाले लोक-सेवकों के लिए अंग्रेजी पर इतना जोर क्यों ? इन लोक-सेवकों को लोक से उनकी भाषा में बातचीत करके उनकी समस्याओं का समाधान करना है या अंग्रेजी झाड़कर उन पर रोब जमाना है ?
‘बाँग्ला पक्खो’ के सिपहसालारों को जहाँ अंग्रेजी के वर्चस्व के खिलाफ लामबंद होना चाहिए, वहाँ बंगाल को भी देश से जोड़ने वाली भारत संघ की राजभाषा हिन्दी ही उन्हें सबसे बड़ी शत्रु दिख रही है। यह हमारे लिए गंभीर चिन्ता का विषय है।
बहरहाल, इस अध्यादेश के लागू होने से हिन्दी-उर्दू-संथाली भाषियों से भी ज्यादा नुकसान बांग्ला भाषियों का होने वाला है। अंग्रेजी माध्यम से पढ़ने वाली बांग्ला भाषियों की संतानें भी ज्यादातर द्वितीय भाषा के रूप में हिन्दी पढ़ती हैं और बांग्ला उनके घरों में बोलचाल तक ही सीमित रह गई है। अकारण नहीं है कि, बांग्ला माध्यम के विद्यालय भी बड़ी संख्या में टूट रहे हैं या अंग्रेजी माध्यम में बदल रहे हैं।
इसलिए आज जरूरत है हिन्दी-उर्दू -संथाली आदि को साथ लेकर अंग्रेजी के वर्चस्व के खिलाफ आन्दोलन तेज करने की। तभी बाँग्ला भी बचेगी और बंगाल की महान संस्कृति भी। बंगाल की सरकार को भी शीघ्र यह अध्यादेश वापस लेना चाहिए और पहले जैसी स्थिति बहाल करनी चाहिए। हाँ, यदि बांग्ला का प्रश्न पत्र अनिवार्य रूप से रखना ही है तो वह कार्यसाधक ज्ञान के लिए उसी स्तर का हो, जिस स्तर की शिक्षा बंगाल में दी जा रही है।

(सौजन्य:वैश्विक हिंदी सम्मेलन, मुम्बई)

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