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बरखा के रंग

दीप्ति खरे
मंडला (मध्यप्रदेश)
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मदमाती वर्षा ऋतु आई,
तपती धरती की तपन मिटाई
रिमझिम-रिमझिम बरसे मेघा,
सबके मन में हैं खुशियाँ छाईं।

बादल गरजे, बिजली चमके,
बूँदों ने बारात सजाई
हरी चुनरिया ओढ़ धरा भी,
पावस के स्वागत में मुस्काई।

कुछ बूँदें रोकी सूरज ने,
इंद्रधनुष सजा दिया
धरती संग अम्बर ने भी,
श्रृंगार अपना कर लिया।

नदियाँ भी उन्मुक्त वेग से
बह रहीं किनारा छोड़कर
आलिंगन करने को उत्सुक,
बाट जोहता है सागर।

अन्नदाता कृषकों के चेहरे,
खुशी से खिलने लगे
भरपूर फसल के सपने फिर,
नैनों में सजने लगे।

बारिश की हर एक बूँद ने,
जीवन रस बरसाया है।
प्रकृति मना रही उत्सव,
सृष्टि में गीत समाया है॥