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बरसात ही तो है…

संजय एम. वासनिक
मुम्बई (महाराष्ट्र)
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बरसात ही तो है जो भिगो देती है,
तन मन और धन भी
गर्मी की तपिश से झुलसे हुए तन,
एक हल्की बौछार की चाह में
तड़पते रहते हैं इंतज़ार करते हैं,
बरसात का, बरसात ही तो है
शीतल कर देती है तन को…।

अशांत मन ढूँढता रहता है,
शांति की तलाश में भटकता है
शहर से गाँव, गाँव से जंगल,
जंगल ही तो है जो देता है
न्यौता बरसात को धरा पर आने का,
बरसात ही है जो शांत करती है मन को…।

धन सोना चाँदी हीरे मोती नहीं,
धन है धरती के गर्भ से
उपजे धन-धान्य के भंडार,
मानव पशु या कोई जीवित
क्या चाहिए जीने के लिए,
हीरे-मोती सोना-चाँदी से
केवल मन भरता है पेट नहीं,
धन और धान्य से ही बढ़ती है समृद्धि
और बरसात ही तो है जो धरा के
गर्भ में बोए बीज को पालती है,
पोषण करती है तभी तो
मुझे इंतज़ार रहता है,
पहली बरसात का
दूसरी बरसात का,
तीसरी बरसात का।
और लगातार बार-बार,
आनेवाली बरसात का
हमेशा इंतज़ार रहता है…॥