हेमराज ठाकुर
मंडी (हिमाचल प्रदेश)
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मुर्दों से आज डर नहीं लगता,
जितना कि डराते आज ये जिन्दा हैं
बस्तियों के सन्नाटों को देख के आज,
शमशान अपने वीराने से शर्मिंदा है।
डरते थे लोग श्मशान जाने से,
सुनसान बियाबान वीरान अकेले में
अब डरने लगे हैं जाने से लोग,
अकेले-अकेले बस्तियों के झमेले में।
होता था डर श्मशानों में लोगों को,
भूत, पिशाच और चांडालों का
अब लगने लगा है डर अपनी ही बस्ती में,
जिन्दा नर कंकालों का।
आदमी, आदमी से बतियाता नहीं है,
अब, उल्टा एक-दूसरे को डराता है
आदमी को आदमी का सहारा था पहले,
अब आदमी, आदमी से घबराता है।
बस्तियों से होता हुआ यह सन्नाटा,
अब धीरे-धीरे घरों में भी जा रहा है
बिन मौत के ही परिवारों में आज,
न जाने क्यों अजीब-सा मातम छा रहा है ?
कुछ तो हुआ है माहौल में बेढंगा,
इस खामोशी का कुछ ना कुछ तो कारण होगा ?
आ जाए बस्तियों में फिर से रौनक,
इस बदहवासी का कुछ ना कुछ तो निवारण होगा।
आओ खोजें उपाय सब मिलकर,
फिर से समाज के भाईचारे और हँसी-खुशियों का
छोड़ते हैं मिलकर घनघोर स्वार्थों को,
निकालते हैं तोड़ इन दकियानुसियों का।
नई नस्लों के लिए बहुत ही जरूरी है,
आज बस्तियों के शोरगुल की बहाली जी
वरना देखी न जाएगी दिन-ब-दिन हमसे,
गाँव-गाँव की बेतरतीब बेहाली जी।
टूट न जाए कहीं सब रिश्ते-नाते,
सगे भाई-बहन का रिश्ता भी शर्मसार होगा।
कुछ तो प्रयास खुद भी कर लो यारों,
हम सोचे बैठे हैं कि वही करेगा,जो अवतार होगा॥