राधा गोयल
नई दिल्ली
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माँ को भगवान ने छीना, बापू ने घर से निकाला,
मेरी सारी आशाओं का, निकला आज दिवाला
सोचा था कि पढ़ लिखकर, सबको शिक्षित कर दूँगी,
अपनी माता का जग में, रोशन मैं नाम करूँगी।
दे दिया भाग्य ने धोखा, माँ को ही छीन लिया है,
मेरे सारे सपनों को, सपनों में दफन किया है
खाने का नहीं आसरा, नहीं कोई ठौर-ठिकाना,
बस जहाँ जगह मिल जाए, सोने का वही ठिकाना।
जिन बोरों पर सोते हैं, हर सुबह हाथ में लेकर,
भाई और मैं दोनों ही कचरे से प्लास्टिक चुनकर
उसे बेचकर अपने खाने का जुगाड़ करते,
कचरे में फेंकी रोटी से, पेट कभी भर लेते।
भीख माँगकर जीना, हमको स्वीकार नहीं है,
स्वाभिमान से जीना, केवल स्वीकार यही है
ऐ नेताओं हम तुमसे, कोई दया नहीं चाहते हैं,
मौलिक अधिकारों का ही, हम अपना हक चाहते हैं।
सबको समान अधिकारों के नारे खूब लगाते,
फुटपाथों पर जो सोए, क्यों तुम्हें नहीं दिख पाते ?
क्या हम जैसों को जीने का, कुछ अधिकार नहीं है ?
हम भी कुछ पढ़ लिख जाएँ, तुमको स्वीकार नहीं है।
योजना बनाते फिरते, पर अमल नहीं हो पातीं,
कागजी योजना सारी, कागज में ही रह जातीं।
ऐ धर्म के ठेकेदारों, क्या तुम्हें शर्म नहीं आती ?
सभी योजनाएँ क्यों, कागज में ही रह जातीं ?
जिस देश का भूखा बचपन, कचरे में पलकर बढ़ता,
उस देश की बर्बादी को, फिर कोई रोक नहीं सकता।
है वक्त अभी भी जागो, सड़कों पर जाकर देखो,
कचरे में बचपन रोता, उनको उनका हक दे दो॥
 
					 
		