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बुढ़ापा छू भी ना पाएगा…

पद्मा अग्रवाल
बैंगलोर (कर्नाटक)
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कल रात मैं जब सोई थी,
मीठे-मीठे सपनों में खोई थी
तभी अचानक ऐसा लगा, कि
किसी ने दरवाजे पर थपकी दी है
मैंने सपने में ही देखा-
कि एक बूढ़ा दरवाजे पर खड़ा था,
जिसके बाल सन्न से सफेद थे
कंधे झुके और काया थी कृषकाय,
हाथों में सहारे के लिए लाठी थी
मैंने चिंतित स्वर में पूछा
बाबा, सुबह-सुबह कैसे आए,
वह जोर-जोर से हँस कर बोला
मैं बुढ़ापा हूँ,
तुमको लेने आया हूँ।

वह अंदर आने को खड़ा था,
अपनी जिद पर अड़ा था
मैंने कहा, नहीं भाई अभी नहीं,
अभी तो मेरी उमर ही क्या है!
वह फिर से हँस पड़ा था,
‘जबर्दस्ती की जिद मत करो
मुझे तो रोकना नामुमकिन है।’

मैं मुस्करा कर बोली, मान भी जाओ,
अब तो मुझे थोड़ी-सी अक्ल आई है
अभी तक तो मैं दूसरों के लिए ही जी रही थी,
अब तो कुछ दिन अपने लिए भी जीना चाहती हूँ
कुछ कविता-कहानी लिखना चाहती हूँ,
अपनी सखी-सहेलियों के लिए,
साथ हँसना-खिलखिलाना चाहती हूँ।

बुढ़ापा पोपले मुँह से हँस कर बोला,
अगर ऐसा चाहती हो,
तो ऐसा ही होगा, तुम चिंता मत करो
तुम्हारी उम्र तो बढ़ती जाएगी,
लेकिन बुढ़ापा नहीं आएगा
तुम लिखती-पढ़ती रहना।
सहेलियों के संग हँसती- खिलखिलाती रहना,
बुढ़ापा तुमको छू भी ना पाएगा॥