अजय जैन ‘विकल्प’
इंदौर (मध्यप्रदेश)
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बेटी हो तुम… तुम दीप बनी रहो,
अंधेरों में भी उजास बनी रहो
तुम खूब उड़ो, बढ़ो, मगर संयम के साथ-
चरित्र की डोर थामे, हर बात में विश्वास बनी रहो।
ना तेरे हाथ में हो छल की रेखा,
ना तेरी आँखों में कोई झूठा सपना हो
ना तू किसी राजा की रानी बन-
ना फिर किसी राजा की अर्थी का किस्सा अपना हो।
समाज तुझे आकाश देना चाहता है,
पर तू जमीं की जड़ भी पहचान ले
हर रिश्ते को मत व्यापार समझ-
संवेदना से उनका सम्मान कर, ये समझ-ज्ञान ले।
मोबाइल की दुनिया तेरे भीतर उतर गई है,
रील्स की चमक में आत्मा बिखर गई है
अब तू ‘स्वतंत्र’ है… ठीक है बेटी-
पर याद रख, सबसे पहले नारी मतलब ‘ज़िम्मेदारी’ है।
खूब पढ़ो… जरूर पढ़ो, भरपूर बढ़ो… बहुत आगे बढ़ो,
मगर भीतर की इंसानियत कभी मत भूलो
तेरे कारण अगर किसी माँ का कलेजा फट जाए-
तो चाहे जो भी हो, जीत नहीं वो तू हारी है।
राह गलत तो जो चुप रहे, वो भी दोषी हैं,
जो ताली बजाए, वो भी हैं हिस्सेदार
पर तू अपनी आँखें खोल ले बेटी-
तू खुद को बना चरित्र की पहरेदार।
ये लड़ाई लड़कियों के खिलाफ नहीं है,
ये युद्ध अधूरे संस्कारों के खिलाफ है
गिद्ध लड़कों को भी तो पहचानो बेटी-
मगर खुद गिद्ध बन जाना कहाँ का इंसाफ है ?
तुम नारी बनो-तेजस्विनी, सहनशील, वीरांगना,
ना छल की चाल में, ना लालच की राह में
तू जिस घर में जाए, वो मंदिर बन जाए-
ना कि खुद की चिता सजे, तेरे ही ब्याह में।
राजा तो बस एक प्रतीक, एक चेहरा है,
हर शहर में कई राजा कुचले पड़े हैं
अबोध-मासूम बनकर जो वार करती हैं-
उनसे खुद शर्मिंदा बेटियों का सेहरा हैं।
अब ‘बेटी’ नहीं वो, बारूद बन रही है सबके लिए,
क्या हुआ है आखिर ? बढ़ रही घर जलाने के लिए
डोली की मेंहदी से… अर्थी तक उसे शरम नहीं-
ये कैसी आजादी ? ज़िंदगी उजाड़ने के लिए।
तो बेटी… जरा समझ-तू सिर्फ शरीर नहीं, तू चेतना है,
तू सिर्फ अधिकार नहीं, तू एक साधना है
तू सिर्फ आज़ादी नहीं, जवाबदेही है-
तू रौशनी है… तो रौशनी जैसी ही रह।
भूल मत-तू नारी है… तू चरित्र का पर्याय है, तू ममता है,
तू लक्ष्मी है, धरा पर चलती एक गरिमा है
मत बदल खुद को, प्रेम की बिकती किसी कहानी में-
बेटी हो तुम…बनी रहो मान समाज की निगहबानी में।
अब भी वक्त है, चेतें;बेटियों को दिशा भी दीजिए,
वरना उनका चील बनना तय है घरों को नोंचने के लिए।
आजादी संग जन्म से संस्कारों में ढाल दीजिए,
वरना, लोग दुआ ना करेंगे अब कन्या जन्म के लिए॥