सपना सी.पी. साहू ‘स्वप्निल’
इंदौर (मध्यप्रदेश )
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अभी हमारे देश भारत का विपक्ष संविधान की जो दुहाई देता फिरता है, वह भूल जाता है कि जितनी बार संविधान पर हमले कांग्रेस के सत्तारूढ़ रहते हुए, वैसे तो भाजपा (राजग गठबंधन) की सरकार के पूर्व के २० वर्ष में भारत ने कभी नहीं देखे। हम भारतीय राजनीतिक घटनाओं का आधुनिक इतिहास पढ़ें तो इसके स्पष्ट उदाहरण देखने को सरलता से मिल जाते हैं।
देश की आम जनता सदैव से भोली-भाली रही है। पहले तो भारत में साक्षरजन भी कम थे, दूसरा भारतीयों की आदत है कि, घटनाओं को जल्दी बिसरा देते हैं, परन्तु संविधान पर हमले की घटित घटनाओं को हमें भूलना नहीं चाहिए, क्योंकि यह हमारे अधिकारों, कर्तव्य, कानून का लेखा-जोखा है। जो ‘इण्डि विपक्ष’ अभी संविधान की हत्या के राग अलाप रहे हैं, वे भूल जाते हैं कि वे पहले ही संविधान के साथ गलत- छेड़छाड़ कर चुके हैं। फिर भी विपक्ष जो झूठे राग अलाप रहा है, वह सिर्फ जनता को भ्रम में रखने के अलावा कुछ नहीं। डाॅ. बी.आर. आम्बेडकर व संविधान सभा द्वारा लिखा गया संविधान पूर्व-प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने १६ बार, पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने स्वसत्ता उपभोग के लिए ३१ बार, पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने अपनी सत्ता चलाने के लिए १६ बार और सोनिया गांधी ने तो बिना प्रधानमंत्री बने ही ११ बार संविधान को बदला है। लोकतंत्र पर हमले के कुछ बडे़ उदाहरण तो हम भुलाए नहीं भूल सकते।
१९३८ में सुभाष चंद्र बोस कांग्रेस के अध्यक्ष मनोनीत हुए थे। तत्पश्चात महात्मा गांधी द्वारा उन्हें अध्यक्ष मानना अस्वीकार कर दिया गया था। तब किसी का बहुमत से चयनित होना और उससे मनमानी करकर मनोनयन ठुकराना भारतीय लोकतंत्र पर हमला ही तो था। स्वाभिमानी ‘नेताजी’ ने अंततः कांग्रेस दल से अपना इस्तीफा दे दिया। उनकी प्रसिद्धि कांग्रेस पचा नहीं पाती थी, उनकी दुखद शहीदी कैसे हुई और पार्थिव शरीर न मिलना आज तक रहस्य का विषय है।
अब हम इतिहास में लोकतंत्र पर हमले के ऐसे उदाहरण की ओर बढ़ते हैं, जिसमें सरदार वल्लभ भाई पटेल को सर्वसम्मति से बहुमत मिला। उन्हें कांग्रेस के अध्यक्ष पद के लिए १२ और नेहरू को मात्र ३ मत मिले थे। और यह तय था कि, जो कांग्रेस का अध्यक्ष बनेगा, वही आजाद भारत का भावी प्रधानमंत्री होगा, लेकिन तब बहुमत से चयनित उम्मीदवार होने के बाद भी जवाहर लाल नेहरू को गांधी जी की पहली पसंद होने के कारण देश का पहला प्रधानमंत्री बना दिया गया। यह लोकतंत्र पर हमला ही तो था, जिसका खामियाजा हमने चुकाया भी है। लोकतंत्र पर हमले को यहीं विराम नहीं लगा, नेहरू के बाद गांधी परिवार की राजनीतिक लोलुपता कम नहीं हुई। भारत के लोकतंत्र को राजतंत्र में बदलने का बीड़ा सदैव गांधी परिवार ने अपने जिम्मे रखा है। इंदिरा गांधी ने तो देश की प्रधानमंत्री बनने पर जो क्रूरता दिखाई, उसे लोकतंत्र पर मारी गई सबसे बड़ी चोट कहें तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी। इंदिरा गांधी ने तो अपनी मनमानी करने के लिए ‘आपातकाल’ की घोषणा की, देश को अपना गुलाम मान लिया और संविधान को जैसे अपने हाथ से लिखी डायरी। आपातकाल में जिसने भी गलत राजनीतिक आचरण का विरोध किया, बस उस समय के हर विपक्षी नेता को जेल में डालकर अमानवीय यातनाओं से प्रताड़ित किया, प्रेस की स्वतंत्रता छीन ली और मनमाना आचरण किया गया। यह लोकतंत्र की हत्या की गूंज विदेशों तक गूंजी थी। भले ही उस समय भारतीय लोग शिक्षा से वंचित हों और कई भोले जन इस राजनीतिक बात को नहीं समझते हों, पर जितने भी भारतीय शिक्षितजन थे, उन्होंने इंदिरा गांधी के इस कृत्य को गलत ठहराया था और हम आज भी उस दौर को २५ जून ‘काला दिवस’ के रूप में याद करते हैं।
इंदिरा की तरह संजय गांधी को भी राजनीति का शौक था और इंदिरा गांधी का उसे बहुत सहयोग मिलता था। हिंदुओं की जनसंख्या नियंत्रण के लिए दोनों राजनीतिक माँ-बेटे ने ‘नसबंदी कार्यक्रम’ चलाया। यह लोगों पर दवाब बनाकर जबरदस्ती करवाया गया और ऐसे अपनी इच्छा जनता पर थोपना लोकतंत्र की हत्या का प्रयास ही तो था।
इसके बाद गांधी परिवार के तीसरे प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने तो इंदिरा गांधी के २ हत्यारों को सजा दिलवाने की जगह पूरे देश को सिक्ख दंगों की आग में झोंक दिया। यह भी लोकतंत्र पर करारा हमला ही तो था, जिसमें एक परिवार के प्रतिशोध का खामियाजा हर सिक्ख ने भोगा था।
फिर राजीव गांधी ने शाहबानो के प्रकरण में सर्वोच्च न्यायालय के फैसले को बदलकर लोकतंत्र का मखौल उड़ाया। फैसले में कट्टरपंथियों की बात को तवज्जो देते हुए लोकतंत्र पर हमले का प्रयास किया।
इस परिवार की मनमानी का आलम यहीं नहीं बदला। सोनिया गांधी के अध्यक्ष बनने पर पू्र्व में १९९६ से ९८ में केन्द्रीय मंत्री और कांग्रेस अध्यक्ष सीताराम केसरी को गुसलखाने में बंधक बना दिया गया। यह गलत व्यवहार लोकतंत्र पर हमले का प्रयास ही तो था। अगला प्रयास तो इससे भी अधिक शर्मसार कर देने वाला था। सोनिया गांधी की अध्यक्षता में सीताराम केसरी को इतना जलील किया गया कि, उनके तन से नेताओं ने धोती खींचकर उतार दी और उन्हें एकमात्र अधोवस्त्र में कांग्रेस दफ्तर से बाहर का रास्ता दिखाया गया। उस नेता के आत्म सम्मान को ठेस पहुँचाकर भी माफी नहीं मांगी गई। सीताराम केसरी उस घटना से फिर कभी गुमनामी के अंधेरों से बाहर नहीं निकल पाए। यह लोकतंत्र पर हमले का जलील प्रयास ही तो था।
देश के पूर्व मेधावी प्रधानमंत्री नरसिम्ह राव के मरणोपरांत उनके पार्थिव शरीर को कांग्रेस कार्यालय में लाने का सख्त मना कर दिया गया। तब उनकी अंत्येष्टि दिल्ली में नहीं हुई और यह कृत्य कांग्रेस ने भारत को अपनी जायदाद समझते हुए नहीं करने दिया। सोनिया और कांग्रेस नहीं चाहती थी कि नेहरू, इंदिरा, राजीव की तरह नरसिम्हा राव की समाधि दिल्ली में बने। यह स्व की सोच लोकतंत्र की हत्या का प्रयास ही तो था।
इसके बाद भी यह सतत प्रयास नहीं रूके। सोनिया गांधी ने पर्दे के पीछे से २००४-१४ तक अघोषित प्रधानमंत्री पद संभाला है, उस समय उनके पुत्र राहुल गांधी ने प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह द्वारा लाए गए अध्यादेश को इस तरह खारिज करते हुए कैबिनेट में फाड़ कर फेंका कि, डॉ. सिंह देश-विदेश में कठपुतली प्रधानमंत्री की छवि से कभी भी नहीं निकल पाए। संविधान पर इस हमले के कारण भारत में लोकतंत्र की जगह राजतंत्र का संदेश संसार को मिला। गांधी परिवार स्वघोषित भारत के राज परिवार से कम नहीं रह गया।
२०१४ से आज तक भी चाहे भाजपा संग राजग गठबंधन सत्ता में हो, पर जहां-जहां यूपीए ( इंडि गठबंधन) द्वारा शासित राज्यों में आलोचना का स्तर चरम पर होने से दक्षिणपंथियों द्वारा लगातार एफआईआर लोकतंत्र पर नियमित हमलावर होना ही तो है।
गांधी परिवार और उनके समर्थक भले ही लोकतंत्र पर हमले की बात करते हुए भारत में भ्रम चला रहे हों, लेकिन यह वैसा ही कथन है कि पाकिस्तान आतंकवाद का विरोधी है। जैसे यह कथन हास-परिहास जगाता है, वैसे ही लोकतंत्र पर आजादी के समय से हमले करने वाले और समय-समय पर स्वहित के लिए उसे बदलने वाले संविधान को लहराते हुए कहते हैं कि, सत्ता पक्ष संविधान की हत्या करना चाहता है।
