दिल्ली
***********************************
महावीर जयन्ती (१० अप्रैल) विशेष…
प्रत्येक वर्ष हम भगवान महावीर की जन्म-जयन्ती मनाते हैं। जयन्ती मनाने का अर्थ है महावीर के उपदेशों को जीवन में धारण करने के लिए संकल्पित होना, महावीर बनने की तैयारी करते हुए देश एवं दुनिया में अहिंसा, शांति, करूणा, प्रेम, सह-जीवन को साकार करना। शांतिपूर्ण, उन्नत एवं संतुलित समाज निर्माण के लिए जरूरी है महावीर के बताए मार्ग पर चलना। सफल एवं सार्थक जीवन के लिए महावीर-सी गुणात्मकता को जन-जन में स्थापित करना। भगवान महावीर एक युग प्रवर्तक व कालजयी महापुरुष थे। उन्होंने एक क्रांति द्रष्टा के रूप में मानवजाति के हृदय में नवीन चेतना का संचार अपने जीवन-अनुभवों, उपदेशों, शिक्षा और सिद्धांतों द्वारा किया। महावीर सामाजिक क्रांति के शिखर पुरुष थे, वे भारतीय संस्कृति का सूरज हैं। महावीर का दर्शन अहिंसा, शांति और समता का ही दर्शन नहीं है, बल्कि क्रांति का दर्शन है। व्यक्तिगत एवं समााजिक क्रांति के संदर्भ में उनका जो अवदान है, उसे उजागर करना वर्तमान युग की बड़ी अपेक्षा है। ऐसा करके ही हम दुनिया में उन्नत, शांतिपूर्ण, स्वस्थ समाज का निर्माण कर सकेंगे।
महावीर जन्म से ही अतीन्द्रिय ज्ञानी थे। उन्होंने कहा तुम जो भी करते हो-अच्छा या बुरा, उसके परिणामों के तुम खुद ही जिम्मेदार हो। अपने ज्ञान से उन्होंने प्राणी मात्र में चैतन्य की धारा प्रवाहित की। अक्सर वे कहा करते थे-सुख-दु:ख के तुम स्वयं सर्जक हो। भाग्य तुम्हारा हस्ताक्षर है। माँ को फूलों से सजते देख धीरे से बोल उठे-माँ! देखो ये फूल रो रहे हैं। उन्होंने लहलहाती दूब पर चलने की माँ की मनुहार को भी ठुकरा दिया। माँ! इस दूर्वा की सिसकियाँ मेरे प्राणों में सिहरन पैदा कर रही हैं। मैं भला कैसे अपने पैरों से रौंदने का साहस करूं ? क्षणिक स्पर्श सुख के लिए किसी को परितापित करना क्या उचित है माँ ? उनकी करुणा एवं सूक्ष्म अहिंसा के सामने माँ मौन थी। मन ही मन अपने लाड़ले की महानता के सामने नत थी। कभी किसी निरपराध अभावग्रस्त व्यक्ति की दासता उनके कोमल दिल को कचोट जाती तो कहीं अहं और दर्प में मदहोश सत्तासीन व्यक्तियों का निर्दयतापूर्ण क्रूर व्यवहार उनके मृदु मानस को आहत कर देता। महावीर घण्टों-घण्टों तक इन समस्याओं का समाधान पाने चिंतन की डुबकियों में खो जाते। ३० वर्ष की युवावस्था में सहज रूप से प्राप्त सत्ता वैभव और परिवार को सर्प कंचुकीवत् छोड़ साधना के दुष्कर मार्ग पर सत्य की उपलब्धि के लिए दृढ़ संकल्प के साथ चल पड़े। साधिक १२ वर्ष तक शरीर को भुला अधिक से अधिक चैतन्य के इर्द-गिर्द आपकी यात्र चलती रही। वे जिस दिन सर्वज्ञ व सर्वदर्शी बन गए, वह पावन दिन था वैशाख शुक्ल दशमी।
महावीर ने आकांक्षाओं के सीमाकरण की बात कही। उन्होंने कहा मूर्च्छा परिग्रह है उसका विवेक करो। आज की समस्या है- पदार्थ और उपभोक्ता के बीच आवश्यकता और उपयोगिता की समझ का अभाव। उपभोक्तावादी संस्कृति महत्वाकांक्षाओं को तेज हवा दे रही है, इसीलिए जिंदगी की भागदौड़ का एक मकसद बन गया है-संग्रह करो, भोग करो। महावीर का दर्शन था खाली रहना। इसी लिए उन्होंने जन-जन के बीच आने से पहले, अपने जीवन के अनुभवों को बांटने से पहले, कठोर तप करने से पहले, स्वयं को अकेला बनाया, खाली बनाया। जीवन का सच जाना, फिर उन्होंने कहा-अपने भीतर कुछ भी ऐसा न आने दो जिससे भीतर का संसार प्रदूषित हो। न बुरा देखो, न बुरा सुनो, न बुरा कहो। यही खालीपन का संदेश सुख, शांति, समाधि का मार्ग है। दिन-रात संकल्पों-विकल्पों, सुख-दु:ख, हर्ष-विषाद से घिरे रहना, कल की चिंता में झुलसना तनाव का भार ढोना, ऐसी स्थिति में भला मन कब कैसे खाली हो सकता है ? कैसे संतुलित हो सकता है ? कैसे समाधिस्थ हो सकता है ? जो आज को जीना सीख लेता है, समझना चाहिए उसने मनुष्य जीवन की सार्थकता को पा लिया है और ऐसे मनुष्यों से बना समाज ही संतुलित हो सकता है, स्वस्थ हो सकता है, समतामूलक हो सकता है।
हर युग की अपनी समस्याएं होती हैं। आदमी सदा अपनी समस्या का समाधान खोजता है और खोजता रहा है। मैंने अमेरिका की एक पत्रिका ‘टाइम्स’ में पढ़ा कि अब सिंगापुर, चीन आदि में कंफ्यूशियस को फिर लाया जा रहा है। यानी वर्तमान समस्या का समाधान अतीत में खोजने का प्रयत्न किया जा रहा है। हमें महावीर को समझना है तो शाश्वत और अशाश्वत दोनों को समझना होगा। अतीत और वर्तमान दोनों को समझना होगा। महावीर ने सापेक्षता का दर्शन दिया। हर आदमी एक-दूसरे से जुड़ा हुआ है। न केवल आदमी, बल्कि प्रत्येक पदार्थ एक-दूसरे से जुड़ा हुआ है। हमारी विचार-तरंगें, हमारी वाणी की तरंगें, संसार की तरंगों से जुड़ी हुई हैं। इसी आधार पर आचार्य उमास्वामी ने लिखा- ‘परस्परोपग्रहो जीवानाम्’, जीव का स्वभाव है एक-दूसरे का आलंबन बनना, सहारा बनना। यह ‘स्ट्रगल फार सरवाइवल’ या ‘स्ट्रगल फॉर एक्जिसटेंस’ वाली बात अहिंसा के क्षेत्र में मान्य नहीं हो सकती। आज की यह विचारधारा बन गई है कि ‘या मैं या तुम’। दोनों साथ नहीं चल सकते। संयुक्त राष्ट्र संघ की स्थापना इसी लिए हुई कि विरोधी विचारधारा वाले राष्ट्र भी एकसाथ रह सकें, विकास कर सकें। डॉ. राधाकृष्णन ने भगवान महावीर के बारे में कहा था-आज यह जो पूरा लोकतंत्र जीया जा रहा है, महावीर के आधार पर जीया जा रहा है। वर्तमान की समस्या के समाधान के लिए हमारी दृष्टि वर्तमान पर ही न रहे, वह पीछे की ओर भी जाए। अतीत में भी हमारी समस्या के बहुत से समाधान छिपे हुए हैं। उनका साक्षात्कार करें। इसी से हमारा नया जन्म होगा।
उन्होंने अहिंसा को इसी संदर्भ में स्वीकार किया कि वस्तुतः अपना संयम करना ही अहिंसा है। यदि भगवान महावीर की इस शिक्षा को हम व्यावहारिक जीवन में उतारें, तो फिर क्रोध एवं अहंकार मिश्रित जो दुर्भावना उत्पन्न होती है और जिसके कारण हम घुट-घुट कर जीते हैं, वह समाप्त हो जाएगी।
भगवान महावीर एक कालजयी और असांप्रदायिक महापुरुष थे, जिन्होंने अहिंसा, अपरिग्रह और अनेकांत को तीव्रता से जीया। जहां अहिंसा, अपरिग्रह और अनेकांत की चर्चा होती है, वहां महावीर का यशस्वी नाम स्वतः ही सामने आ जाता है। महावीर के दर्शन के प्रकाश में हमें अपने आपको परखना है व अपने कर्तव्य को समझना है, तभी हम उस महापुरुष के श्रीचरणों में सच्ची श्रद्धांजलि समर्पित करने में सफल हो सकेंगे। महावीर के उपदेश जीवनस्पर्शी हैं जिनमें जीवन की समस्याओं का समाधान निहित है। भगवान महावीर चिन्मय दीपक हैं। यदि हमें महावीर बनना है तो पल-पल उनका चिंतन करना अपेक्षित है।