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‘भारत जोड़ो यात्रा’ राजनीतिक उड़ान

ललित गर्ग
दिल्ली
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भारत की माटी में पदयात्राओं का अनूठा इतिहास रहा है। असत्य पर सत्य की विजय हेतु मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम द्वारा की हुई लंका की ऐतिहासिक यात्रा हो अथवा एक मुट्ठी भर नमक से पूरा ब्रिटिश साम्राज्य हिला देने वाला १९३० का डाण्डी कूच, बाबा आमटे की भारत जोड़ो यात्रा हो अथवा राष्ट्रीय अखण्डता, साम्प्रदायिक सद्भाव और अन्तर्राष्ट्रीय भ्रातृत्व भाव से समर्पित एकता यात्रा, यात्रा के महत्व को अस्वीकार नहीं किया जा सकता। भारतीय जीवन में पैदल यात्रा को जन-सम्पर्क का सशक्त माध्यम स्वीकारा गया है। ये पैदल यात्राएं लोक चेतना को युगानुकूल मोड़ देती हैं। इन दिनों कांग्रेस पार्टी की ‘भारत जोड़ो यात्रा’ चर्चा में हैं, यह एक राजनीतिक महत्वाकांक्षा की यात्रा है। सांसद और कांग्रेस नेता राहुल गांधी के नेतृत्व में तमिलनाडु से शुरू यात्रा में १५० दिन में कन्याकुमारी से कश्मीर तक ३५७० किलोमीटर की दूरी तय की जानी है। इसका एक बड़ा मकसद २०२४ के आम चुनावों की तैयारी माना जा रहा है। इस यात्रा को भारत जोड़ो यात्रा नाम दिया गया है, अच्छा होता भारत को जोड़ने से पहले कांग्रेस पार्टी भीतर से जुड़ जाती।
यह पदयात्रा ऐसे वक्त में निकली है, जब पार्टी का जनाधार सिकुड़ा है और तमाम दिग्गज एक-एक करके दल को अलविदा कह रहे हैं। यात्रा के जरिए कांग्रेस अपना जनाधार बढ़ाने की कोशिश कर रही है, यह कितनी कामयाब होती है, वक्त बताएगा। कांग्रेस अपनी बात को किस हद तक लोगों तक पहुंचा पाई है, यह भविष्य के गर्भ में है। निस्संदेह, पार्टी लोकसभा चुनाव के लिए अपने जनाधार को विस्तार देने की तैयारी में है। पार्टी का कहना है कि सत्तारूढ़ राजग सरकार के कार्यकाल में सामाजिक ध्रूवीकरण से राष्ट्रीय एकता को खतरा पैदा हुआ है, वहीं महंगाई व बेरोजगारी से त्रस्त समाज को राहत देने की ईमानदार कोशिश नहीं हो रही है। दरअसल, दक्षिण भारत में ध्रूवीकरण की राजनीति प्रभावी न होने के कारण कांग्रेस ने अपनी यात्रा यहां से शुरू करके दक्षिण में अपनी पकड़ मजबूत बनाने की कोशिश की है।
दिलचस्प तथ्य है कि, पिछले साल फरवरी में जारी एक सर्वे के अनुसार राहुल गांधी तमिलनाडु और केरल में प्रधानमंत्री पद के लिए पसंदीदा उम्मीदवार के तौर पर उभरे थे, जहां दूसरे नेताओं के मुकाबले उनका अंतर भी अच्छा खासा था। कांग्रेस के वरिष्ठ नेता भी इस बात की पुष्टि करते हैं कि दल को पुनर्जीवित करने के लिए दक्षिण भारत से इस पदयात्रा की शुरुआत करने के पीछे यह भी एक बड़ा मकसद था। राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा, एक महत्वाकांक्षी राजनीतिक परियोजना है। इससे एक नेता के रूप में उनकी स्वीकार्यता की परीक्षा होगी और देश के मिजाज का पता चलेगा। प्रश्न है कि धर्म, जाति, सम्प्रदाय के नाम पर देश को जोड़ने की बजाय तोड़ने का काम करने वाली पार्टी का भारत जोड़ो लक्ष्य एक छलावा है, एक प्रपंच है। हिंदुत्व के कटु एवं मुखर आलोचक और विविधता और उदारवाद के पैरोकार राहुल गांधी, कांग्रेस को पुनर्जीवित करने के लिए अब तक अपनी सोच के साथ पर्याप्त जन समर्थन नहीं जुटा पाए हैं। इस बीच, हिंदुत्व की विचारधारा इतनी लोकप्रिय हुई कि उसने दिल्ली पर २ बार सत्ता हासिल कर ली। श्री गांधी को इस बात के लिए आलोचना का सामना करना पड़ा है कि वे लगातार सक्रिय रहने की सीमित क्षमता रखने वाले मौसमी राजनेता हैं। उनमें राजनीतिक परिपक्वता का अभाव है, वे देश की जनता से जुड़ी समस्याओं को उठाने में उतने गंभीर नहीं है, जितना होना चाहिए। ऐसी राजनीतिक यात्राओं ने इतिहास और यहां तक कि हाल में भी कई नेताओं की किस्मत लिखने और विचारधारा को उर्वर बनाने का काम किया है। महात्मा गांधी से लेकर लालकृष्ण आडवाणी, चन्द्रशेखर तक इस बात की मिसाल हैं। इसलिए श्री गांधी को हर कदम पर उनके प्रशंसकों, आलोचकों और सबसे जरूरी तौर पर खुले विचारों वाले संशयवादियों द्वारा बारीकी से परखा जाएगा।
निस्संदेह, हर पदयात्रा के राजनीतिक निहितार्थ होते हैं। महात्मा गांधी ने दांडी यात्रा की शुरुआत ऐसे वक्त में की थी, जब देश को आजादी के लिए जोड़ने एवं कांग्रेस में स्फूर्ति लाने की महती आवश्यकता थी। लालकृष्ण आडवानी ने हिन्दुत्व को मजबूती देने के लिए यात्रा की। कमोबेश कांग्रेस ऐसे ही संक्रमण काल से गुजर रही है। नेतृत्व का प्रश्न भी उसके सामने है। लगातार निस्तेज होती पार्टी और भ्रष्टाचार के आरोपों से घिरे गांधी परिवार के शीर्ष नेताओं से केंद्रीय एजेंसियों की पूछताछ जारी है। अपने लंबे-चौड़े इस्तीफे में गुलाम नबी आजाद ने कहा भी कि देश जोड़ने के बजाय इस समय कांग्रेस को जोड़ने की जरूरत है।
सवाल यह भी है कि आगामी महासमर में राजग के मुकाबले के लिए विपक्षी एकता के प्रयासों की कड़ी में क्या विपक्षी दलों को भी पदयात्रा में शामिल नहीं किया जाना चाहिए था ? भले ही कांग्रेस पदयात्रा का लक्ष्य देश में ध्रुवीकरण से उत्पन्न खतरों से लोगों को अवगत कराना, महंगाई व बेरोजगारी के मुद्दे पर जन दबाव बनाना बताती हो, मगर मुख्य लक्ष्य तो राहुल गांधी की जन-स्वीकार्यता में इजाफा करना ही है, लेकिन इससे संगठन में जान फूंकने में मदद अवश्य मिलेगी।
भारत के तटस्थ लोगों की नाराजगी यह है कि, सामान्य और प्रतिभाशाली कार्यकर्ताओं की कीमत पर परिवारवादियों ने कांग्रेस पार्टी के भीतर की सत्ता पर कब्जा कर रखा है। उदयपुर के सम्मेलन में दल की अंदरुनी सत्ता में वंशवाद पर अंकुश लगाने का संकल्प लिया गया था, लेकिन अब तक यह कागज पर ही सिमटा हुआ है। कांग्रेस को अपनी परिवारवादी मानसिकता से उपर उठते हुए देश की बुनियादी समस्याओं पर गंभीरता से ध्यान केन्द्रित करना होगा। रोजगार जाने से लोगों की क्रय शक्ति घटी है, करोड़ों लोगों के सामने दो वक्त की रोटी का संकट खड़ा हो गया है। महंगाई पर काबू पाने में सरकार विफल साबित हो रही है। आँकड़ों के खेल में जरूर यह कुछ घटती-बढ़ती रहती है, मगर धरातल पर आम लोगों को रोजमर्रा की चीजों के लिए भी बहुत सोच-समझ कर जेब में हाथ डालना पड़ता है। इसलिए यह मुद्दा भी कांग्रेस के लिए हथियार साबित हो सकता है। इसके अलावा किसानों, मजदूरों और भ्रष्टाचार से जुड़े मसले भी हैं, जिन्हें वह गिनाने से नहीं चूक रही। हालांकि, महंगाई एक ऐसा मुद्दा है, जो हर विपक्षी दल के लिए सदा से चुनावी हथियार बनता रहा है, मगर असल बात यह कि ये अस्त्र तभी कारगर साबित हो सकते हैं, जब कांग्रेस अपनी अंदरूनी उथल-पुथल से बाहर निकल कर आम मतदाता का विश्वास जीत सके। रैलियाँ, आंदोलन और यात्राएं कुछ देर को लोगों को जरूर प्रभावित करती हैं, मगर उनके टिकाऊ होना का दावा तभी किया जा सकता है, जब दल पर लोगों का भरोसा हो।