डॉ. संगीता जी. आवचार
परभणी (महाराष्ट्र)
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मन का मौसम है अपने ही मन का फेर,
दूसरों को देखोगे तो हो ही जाएगा अंधेर।
मन अपना, खुशी क्यों औरों से जोड़ते हो ?
तोड़ने वाले बहुत हैं, फिर मायूस हो जाते हो!
मन अपना फूल से बढ़कर नाजुक होता है,
औरों से कहाँ आज-कल समझा जाता है ?
मन रे, कहा है किसी कवि ने तू धीर धर,
औरों की वजह से खुद को बर्बाद न कर।
मन रे मोह-माया से सम्भल कर रहा कर,
मुफ्त में सुख-चैन का सौदा न किया कर।
मन का मौसम खुद के काबू में रखा कर,
इसे औरों के भरोसे नहीं कभी सौंपा कर॥