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माँ के लाड़ले

सीमा जैन ‘निसर्ग’
खड़गपुर (प.बंगाल)
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शिक्षा पाने घर से बहुत दूर रहते हैं,
माँ के लाड़ले कितने प्रेशर में जीते हैं
‘मम्मी-मम्मी’ कह पीछे घूमने वाले,
कई बार खाली पेट दिन गुज़ार देते हैं।

कपड़े, उठाना, धरना सीखते हैं,
सारी व्यवस्था खुद ही देखते हैं
कभी धोबी से, कभी बाई से उलझ,
धीरे-धीरे गृहस्थी सजाना सीखते हैं।

पढ़ाई के बाद जॉब के लिए भटकते हैं,
अनजान शहर में अकेले कदम रखते हैं
घर वालों की अपेक्षाएं जानकर,
कितनी रातें जागकर गुजारते हैं।

बचपन में क्या सपने देखा करते थे,
धीरे से कहाँ तक फिसल आते हैं
बाजार की निर्दयी उठा-पटक से,
समझौता करना सीख जाते हैं।

माँ के लाड़ले छुपकर आँखें भिगो लेते हैं,
जब कभी पथरीले हालात से टकराते हैं
माता-पिता दिलासा देने करीब नहीं होते,
दोस्तों संग ही स्नेह बांट लेते हैं।

अंदर से बेचैन और अशांत होते हैं,
उदासी के बादल हँसी में उड़ाते हैं
हिम्मत को बरकरार रखते हुए,
अकेले ही तैरना सीखते हैं।

माँ के स्पर्श, पिता की छाँव से दूर होते हैं,
तकलीफें अपनी उजागर नहीं करते हैं
जॉब के कठिन चक्रव्यूह को तोड़ने,
अकेले ही लड़ते चले जाते हैं।

पहली जॉब जैसी भी मिल जाती है,
“माँ, क्या लाऊं तुम्हारे लिए ?”, पूछते हैं…
एकदम से बड़े और जिम्मेदार बन,
ज़िंदगी की दौड़ में शामिल हो जाते हैं।

‘मम्मी-मम्मी’ कह पीछे घूमने वाले,
कई बार खाली पेट दिन गुज़ार देते हैं।
माँ के लाड़ले… बहुत प्रेशर में जीते हैं,
माँ के लाड़ले… बिन माँ के भला कैसे जीते हैं॥