संजय एम. वासनिक
मुम्बई (महाराष्ट्र)
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माँ और हम (मातृ दिवस विशेष)….
घर में मेरे
चूल्हा था मिट्टी का,
जिसमें जलती थी
सूखी और गीली लकड़ियाँ
लाल-पीली ज्वालाओं का
नाच चलता रहता था,
सुर्ख़ लाल अंगारों पर
सिकती हुई रोटियॉं
और खाने की ख़ुशबू,
फैली होती थी सारे घर में…।
माँ के हाथ का स्वादिष्ट खाना,
बुझे हुए चुल्हे की बची हुई
राख के तले दबे हुए,
अंगारों की गरमाहट
रात के खाने बाद भी,
दूसरे दिन सुबह तक
टिकी रहती थी…।
अब चूल्हा पूरी तरह बुझ चुका है,
किंतु वैसी ही गरमाहट
माँ के प्रेम और ममता की।
आज भी हमारे दिल,
दिमाग़ और शरीर में है
और रहेगी जिदंगी भर…॥