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मुख पर पहरा था

सीमा जैन ‘निसर्ग’
खड़गपुर (प.बंगाल)
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फूलों के चेहरे उतरे थे
पत्तों के गुमसुम तेवर थे,
कंपित से खड़े चिनार थे
खफ़ा मानव से देवदार थे,
मौसम में स्याह वीरानी थी
क्या चाल कोई चली जानी थी ??

अनहोनी का गंदा खेल रचा
आतंक मन में हर्षाया था,
ये किसने खेल बिछाया था
जिसे जान समय थर्राया था,
धुआँ आलम कहता-सा लगा
पर उसके मुख पर पहरा था।

फिर दृश्य हुआ बदरंग भरा
सिंदूर जहां-तहां पड़ा गिरा,
ये कैसा शोर उमड़ आया
फूलों पर क्योंकर जुल्म हुआ,
कुछ पल में हृदयविहीन तन ने
वादी को रक्तरंजित किया।

क्या समझो दर्द अथाह मेरा!
होंठों से प्याला छीन लिया,
नवयौवन-सी स्वप्निल आँखों में
हर आँसू कब का सूख गया,
इस दिल में नहीं बची साँसें
कह दो, इस तन का क्या होगा…??

वो सुबह कभी न आएगी
वो शाम सूनी रह जाएगी
साँसों बिन जीवन क्या जीना
कैसे ये सजा पूरी होगी…??
आ जाओ न ओ प्राण मेरे,
नहीं बची राख किंचित तन में॥