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मुझे पत्थर ही रहने दो

राजबाला शर्मा ‘दीप’
अजमेर(राजस्थान)
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मत छुओ मुझे
मुझे पारस नहीं बनना,
मैं पत्थर ही सही हूँ।

पारस बनकर,
मैं अहंकार में भर जाऊं
तिजोरी या संदूक में बंद,
अस्तित्वहीन मैं हो जाऊं
मन ही मन में इतराऊं।
इससे अच्छा,
मुझ पत्थर को पत्थर ही रहने दो
मैं पत्थर ही सही हूँ।

किसी कामिनी,
मानिनी
या वैरागिनी के पैरों तले,
आह या वाह की
सार्थकता बनूं।
नदी के किनारे,
नाव से उतरते-चढ़ते,
किसी पैर का सहारा बनूं।
दो पल ठहर कर,
बैठ कर,
किसी को आराम मिले,
कुछ लम्हों का विश्राम मिले
यही चाह मेरी।
मुझ पत्थर को पत्थर ही रहने दो,
मैं पत्थर ही सही हूँ…॥

परिचय– राजबाला शर्मा का साहित्यिक उपनाम-दीप है। १४ सितम्बर १९५२ को भरतपुर (राज.)में जन्मीं राजबाला शर्मा का वर्तमान बसेरा अजमेर (राजस्थान)में है। स्थाई रुप से अजमेर निवासी दीप को भाषा ज्ञान-हिंदी एवं बृज का है। कार्यक्षेत्र-गृहिणी का है। इनकी लेखन विधा-कविता,कहानी, गज़ल है। माँ और इंतजार-साझा पुस्तक आपके खाते में है। लेखनी का उद्देश्य-जन जागरण तथा आत्मसंतुष्टि है। पसंदीदा हिन्दी लेखक-शरदचंद्र, प्रेमचंद्र और नागार्जुन हैं। आपके लिए प्रेरणा पुंज-विवेकानंद जी हैं। सबके लिए संदेश-‘सत्यमेव जयते’ का है।

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