कुल पृष्ठ दर्शन : 43

You are currently viewing मुझे भी बिकना है…

मुझे भी बिकना है…

डॉ. मुकेश ‘असीमित’
गंगापुर सिटी (राजस्थान)
********************************************

आईपीएल मैच का सीजन चल रहा था। क्रिकेट का तो शुरू से मेरा ज्ञान सिर्फ फील्ड से बाहर गई गेंद को दौड़-दौड़ कर लाकर बॉलर को पकड़ाने तक सीमित है।
कभी-कभार मेरे साथी किसी पड़ोस वाली आंटी के मकान का शीशा तोड़ने पर मेरा झूठा नाम लगा देते थे। इसी बहाने यह झूठी तसल्ली मिल जाती थी कि, चलो पड़ोस के आंटी और अंकल ही सही, कोई तो मानता है कि गेंद हम भी मार सकते हैं, शीशा हम भी तोड़ सकते हैं।
क्रिकेट का बाजारीकरण भी देखा है, क्रिकेट भी अपनी जगह सेलिब्रिटी के तीसरे पेज पर बना चुका है। क्रिकेट गलियों से निकलकर बड़े-बड़े उद्योगपतियों की जेब में आ गया है। आईपीएल शुरू होते ही मीडिया हाउस की चाँदी होना शुरू हो जाती है, बड़े -बड़े होर्डिंग्स और विज्ञापन, आईपीएल की नीलामी से ही शुरू हो जाते हैं। गहमा-गहमी का माहौल है। हर जगह एक ही सुर सुनाई देता है-कौन-सा खिलाड़ी कितने में बिका ? खिलाड़ियों के दामों की, जो मोटे-मोटे घोटालों की रकम की बराबरी करती हुई रकम देखकर हमने बड़े अफ़सोस के साथ सोचा, “सच में ‘मैं भी बिकना चाहता हूँ, मुझे भी बिकना है।” जब हर कोई आज के इस चमक-दमक वाले बाजार में, बिकने के लिए खड़ा है, तो कोई मेरा भी दाम लगाए, मगर मैं ? मैं कहाँ जाऊँ ? कोई खरीददार हो तो सही, मेरे भी हिस्से की कीमत लगा दे। वैसे शादीशुदा हूँ, तो पहले ही बिक चुका हूँ, शायद सेकंड हैंड माल को लेने के लिए तो कबाड़ी भी हाथ नहीं लगाएगा।
अब दो कौड़ी के आम आदमी की कीमत भला कौन दे सकता है ! पढ़-लिख के नवाब बनने के शौक में सब गोबर कर दिया है। इससे बढ़िया तो खेल-कूद कर खराब हो लेते। आज हो सकता है कहीं जुगाड़ लगाकर फिट ही हो जाते, चाहे एक्स्ट्रा प्लेयर के रूप में ही सही। जो काम बचपन में किया है, वही कर लेते, मसलन रिटायर्ड हर्ट प्लेयर को स्ट्रेचर में पटक कर ले जाने का, पानी और कोल्ड ड्रिंक पिलाने का एवं शर्ट खोलकर अपने खिलाड़ियों को चीयर करने का।
लाख-२ लाख तो नीलामी में हमें भी मिल ही जाते !
आज के दौर में हर कोई बिकना चाहता है, और हर कोई खरीदना चाहता है। हर कोई जरूरत और परिस्थियतियों के अनुसार खरीददार और बिकने वाला बन जाता है ! हर कोई बिक भी सकता है, बस अनुकूल परिस्थिति और ऊँची कीमत चाहिए। बाजार तय करता है, सप्लाई और डिमांड तय करता है ! जब लोकतंत्र का भविष्य ही बाजार तय कर रहा है, सरकारें बाजार तय कर रही है, फिर अदने से मतदाता की क्या औकात, जो बिक नहीं सके !
गरीब मजदूर चौराहे पर गठरिया बाँधे एक आशा के साथ ढूंढ रहा है उन हाथों को, जो उसे ले जाएं, ताकि शाम की रोटी का जुगाड़ हो जाए। उसे तो बेचने की कला भी नहीं आती। बाज़ार के पैंतरों से अनभिज्ञ, एक निरीह, पथराई-सी आँखें ढूंढ रही हैं बाबू जी को, जो आज उसे मजदूरी देकर उसके सीमित सपनों का मसीहा बनेगा।
आज की युवा पीढ़ी भी बिकने के लिए तैयार है। चंद पसंद (लाइक्स) और प्रतिक्रिया (कमेंट्स) के लिए नग्नता के प्रदर्शन की सीमा से परे जाकर शर्म-हया बेच दी, खिलाड़ी और कलाकार भी अपने-आपको बेच रहे हैं। एक पहुँचे हुए शास्त्रीय संगीतकार जब च्यवनप्राश के विज्ञापन में खुद को बेचते नजर आए, तो लगा कि कला नहीं बिक रही तो क्या, कलाकार तो बिक रहा है। कला-संस्कृति जहाँ देखने, सुनने महसूस करने और अपनी रूह को उन्नत करने के लिए थी, अब सिर्फ प्रदर्शन की वस्तु हो गई है। तालियाँ कला के प्रदर्शन पर नहीं, कलाकार के अंग प्रदर्शन पर ज्यादा बजती हैं !
अब आम आदमी भी तो बिकता है ना! हर ५ साल में, चंद नोटों की खातिर, एक दारू की बोतल की खातिर। हर कोई बिकने को तैयार है, लोकतंत्र के ४ स्तम्भ- न्यायपालिका, विधायिका, कार्यपालिका, पत्रकारिता भी तो इस दौड़ में पीछे नहीं है !
देश की अर्थव्यवस्था भी तो खरीद-फरोख्त से चलती हैं न! दुनियाभर को जीडीपी के झूठे आँकड़े दिखाने की कवायद में लोक तंत्र को अर्थतंत्र में बदला जा रहा है ! इन आँकड़ों को राशन की दुकान में सड़े-गले गेहूँ के बदले में अगर आम जनता को खिला दिया जाए तो, शायद देश की भुखमरी कम हो जाए ! शायद असल मायने में लोकतंत्र को अर्थ दिया जा रहा है !
देखो, बिकने के लिए एक यूएसपी होना जरूरी है। आजकल के प्रेरणादायी वक्ता भी तो अपने- आपको बेचकर आपको बेचने के गुर सिखा रहे हैं। आदमी सामान नहीं, खुद को बेचता है। अब जिसकी यूएसपी अच्छी होगी, वो अच्छे दाम में बिकेगा।
न्यायपालिका में तो वैसे ही न्याय को पत्थर की काली मूर्ति बनाकर उसकी आँखें काले कपड़े से बंद कर रखी हैं। अब पत्थर में संवेदना ढूंढोगे तो कहाँ से मिलेगी ! तराजू हाथ में है, बनाने वाले कलाकार ने तराजू का काँटा भी बिलकुल सही माप का लगाया है। इस पलड़े में रकम डालिए, दूसरे पलड़े में बराबर के वजन का फैसला लीजिए।
विधायिका भी अपनी रंगत बदलती गिरगिट जैसी खूबी लिए है, गैंडे जैसी मोटी खाल धारण किए हुए है। विधायिका भी पलटू राम और मौका-परस्ती के मगरमच्छी आँसू लिए बस बिकने को तैयार है। नीतियाँ, सिद्धांत ये सब हवा और मौके के साथ बदलने की क्षमता रखते हैं।
कार्यपालिका तो बिकने के लिए ही बनी है। इसकी कीमत लेकिन हर कोई अदा नहीं कर सकता। बड़े-बड़े उद्योगपति, कॉर्पोरेट घरानों का ही बूता होता है इनके दाम लगाना !
पत्रकारिता भी हवा के साथ बहने के लिए तैयार है। जहाँ पत्रकारिता दीपक की तरह लोकतंत्र की आखिरी लौ थी, अब हवा के साथ बुझने को तत्पर है। दाम सही मिले तो कब किसकी हवा बना दे और किसकी हवा निकाल दे, सब आता है।
कई लेखकों ने इसी कारण वो लिखना शुरू कर दिया, जो बिकता है। साहित्य की रेसिपी में अश्लीलता और फूहड़ता का छोंक लगाया जा रहा है, अब अच्छा साहित्य तो घर में बनाई बीबी के हाथ की स्वादहीन दाल ही साबित हो रही है। सभी को बाजारू साहित्य का टंगड़ी कबाब ही पसंद है। सुना है ‘मस्तराम’ बहुत ही उम्दा लेखक था, उसकी रचनाएँ स्वाद हीन दाल ही साबित हो रही थी। प्रकाशक ही नहीं मिल रहे थे, जो कोई एक्-दो रहम कर के छाप भी देते थे, वो दुबारा हाथ जोड़ लेते। हार के बेचारे ने वह लिखना शुरू किया, जो सबकी मांग थी। देखते ही देखते उसके हजारों प्रशंसक हो गए, उसका रचा साहित्य अब अलमारियों की धूल फांकने की बजाय तकियों के नीचे करीने से सजाया जाने लगा।
मैं भी बिकना चाहता हूँ, अपनी कीमत चाहता हूँ। कोई मुझे भी खरीद लो, ताकि मैं भी इस बिकने वाले संसार का हिस्सा बन सकूं।