बोधन राम निषाद ‘राज’
कबीरधाम (छत्तीसगढ़)
******************************************************
मानव मन लालच भरे,मृग तृष्णा बन आय।
रुके नहीं यह साथियों,दिन-दिन बढ़ता जाय॥
मृग तृष्णा इक भूख है,करे अनैतिक काम।
होते हैं इससे सभी,मानव फिर बदनाम॥
कहीं लूट औ जंग भी,होते हैं व्यभिचार।
मृग तृष्णा की प्यास में,भटक रहे संसार॥
भाई से भाई लड़े,कलह द्वेष घर-द्वार।
छिन जाते हैं सुख सभी,दु:ख पाते परिवार॥
मृग तृष्णा करना नहीं,जीवन है अनमोल।
सदा नेक राहें चलो,हर इक पग को तोल॥