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शक्ति की पूजा तभी सार्थक, जब नारीअपराध रूकें

ललित गर्ग
दिल्ली
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माता के नौ रंग (नवरात्रि विशेष)…

शारदीय नवरात्र मनाते हुए हम एक बार फिर स्त्री शक्ति के सम्मान के लिए बेटियों एवं महिलाओं के आदर एवं अस्तित्व की बात कर रहे हैं। यह देखना भी दिलचस्प है कि जहां साल में २ बार लड़कियों को महत्व देने के लिए ऐसे पर्व मनाए जाते हों, वहां दोयम दर्जे का मानने वाले भी बहुत हैं, बालिकाओं और बेटियों के अस्तित्व एवं अस्मिता को नोंचने वाले भी कम नहीं है। आए दिन ऐसी घटनाएं देखने और सुनने कोे मिलती हैं कि किस तरह आज भी व्यभिचार एवं अत्याचार करने के बाद उन्हें मार दिया जाता है। उत्तराखण्ड की ताजा घटना आए दिन होने वाले जघन्य अपराधों की ही अगली कड़ी है, भला हमारा नारी को सम्मान देने एवं माँ दुर्गा को पूजना कितना अर्थपूर्ण एवं विरोधाभासी है, साफ झलकता है। यहां हमारी कथनी और करनी का फर्क भी साफ नजर आता है, हमारी दूषित सोच एवं विकृत मानसिकता भी उजागर होती है।
आज भी हमारे समाज की सोच बेटियों को लेकर विडम्बनापूर्ण एवं विसंगतिपूर्ण है। बेटी को न पढ़ाना, जन्म से पहले मारना, घरेलू हिंसा, मासूम शरीर को नोंचना, दहेज और दुष्कर्म से जुडे़ बेटियों के अपराध एवं अत्याचार होना नए भारत, विकसित भारत पर एक बदनुमा दाग है। यह समझाना जरूरी है कि बेटियाँ बोझ नहीं होती, बल्कि आपके परिवार, समाज एवं राष्ट्र का एक अहम हिस्सा होती हैं, एक बड़ी ताकत होती है। आज बेटियाँ चाँद तक पहुंच गई हैं, कोई भी क्षेत्र हो बेटियों ने अपना दम-खम दिखा दिया है और बता दिया है कि वे किसी से कम नही है। इस सबके बावजूद बेटियों को क्यों अपनी हवस का माध्यम बनाया जाता है, यह एक बड़ा प्रश्न नवरात्र जैसे पर्व मनाते हुए हमारे सामने खड़ा है।
यह घटनाएं सत्ता और समाज के उस ढांचे को भी सामने करती है, जिसमें महिलाओं की सहज जिंदगी लगातार मुश्किल बनी हुई है, संकटग्रस्त एवं असुरक्षित है। यह घटना प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी केे ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’ अभियान की भी धज्जियां उड़ाती है।
हर जगह बेटियों के साथ रसूखदार लोगों द्वारा होने वाले अत्याचारों पर प्रशासन एवं पुलिस की शिथिलता-लापरवाही देखने को मिलती है।
बेटियों एवं नारी के प्रति यह संवेदनहीनता कब तक चलती रहेगी ? भारत विकास के रास्ते पर तेजी से बढ़ रहा है, लेकिन अभी भी कई हिस्सों में गलत धारणा है कि बेटियाँ परिवार पर एक बोझ की तरह हैं। एक विकृत मानसिकता भी कायम है कि, बेटियाँ भोग्य की वस्तु है ? भारत में आज से कुछ वर्षों पहले के लिंगानुपात की बात करें तो लड़कों की तुलना में लड़कियों की संख्या बहुत कम थी और गर्भ में बेटियों को मारने का चलन चल पड़ा था। हालांकि, पिछले कुछ दशकों में इस सोच में भारी परिवर्तन भी हुआ है। ज्यों-ज्यों शिक्षित और रोजगारशुदा लड़कियों की संख्या बढ़ी है, उनकी आवाज और ताकत को नेता भी पहचानने लगे हैं। हर राजनीतिक दल अपने घोषणा-पत्र में औरतों के हितों की बातें करने लगा है। महिला नेताओं ने भी बेटियों एवं नारी की स्थिति बदलने में बहुत सकारात्मक भूमिका निभाई है। साल २०१५ में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’ अभियान की शुरुआत की थी। इसके बाद भ्रूण हत्या को समाप्त करने व महिलाओं से जुड़े तमाम महत्वपूर्ण मुद्दों पर पुरुष मानसिकता में व्यापक परिवर्तन आया है। बड़ी संख्या में छोटे शहरों और गाँवों की लड़कियाँ पढ़-लिखकर देश के विकास में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभा रही हैं। वे उन क्षेत्रों में जा रही हैं, जहां उनके जाने की कल्पना तक नहीं की जा सकती थी। वे टैक्सी, बस, ट्रक से लेकर जेट तक चला-उड़ा रही हैं। सेना में भर्ती होकर देश की रक्षा कर रही है। अपने दम पर व्यवसायी बन रही हैं। होटलों की मालिक हैं। बहुराष्ट्रीय कंपनियों की लाखों रुपए की नौकरी छोड़कर स्टार्ट-अप शुरू कर रही हैं। विदेशों में पढ़कर नौकरी नहीं, गाँव का सुधार करना चाहती हैं। अब सिर्फ अध्यापिका, नर्स, बैंकों की नौकरी, चिकित्सक आदि बनना ही लड़कियों के क्षेत्र नहीं रहे, अन्य क्षेत्रों में भी मजबूत उपस्थिति दर्ज करा रही हैं। इस तरह नारी एवं बालिका शक्ति ने अपना महत्व तो दुनिया समझाया है, लेकिन नारी एवं बालिका के प्रति हो रहे अपराधों में कमी न आना, चिन्तनीय प्रश्न है। सरकार ने सख्ती बरती है, लेकिन आम पुरुष की सोच को बदले बिना नारी सम्मान की बात अधूरी ही रहेगी। इस अधूरी सोच को बदलना नए भारत का संकल्प हो, इसीलिए तो इस देश के सर्वाेच्च पद पर द्रौपदी मुर्मू को आसीन किया गया हैं। अमेरिका आज तक किसी महिला को राष्ट्रपति नहीं बना सका, जबकि भारत में इंदिरा गांधी १९६६ में ही प्रधानमंत्री बन गई थीं। असल में, यही तो स्त्री शक्ति की असली पूजा है। अब स्त्री शक्ति के प्रति सम्मान भावना ही नहीं, सह-अस्तित्व एवं सौहार्द की भावना जागे, तभी उनके प्रति हो रहे अपराधों में कमी आ सकेगी।

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