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मैंने निभाया…

अजय जैन ‘विकल्प’
इंदौर (मध्यप्रदेश)
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मैंने चुपचाप हर सुबह को सवेरा किया,
तेरे लिए हर अंधेरे को उजाला किया
तेरी थकान में खुद को भुला बैठी,
तेरे ख्वाबों को अपना बना बैठी।

मैंने वो ख़ामोशी भी समझी, जो तूने कभी कही नहीं,
तेरे हर सूनेपन में वो धड़कन सुनी, जो किसी ने तौली नहीं
तेरे बिना माँगे ही सब-कुछ दे डाला,
पर तुझसे एक ‘मैं’ भी न पाया… यही तो था सवाल सारा।

तू कमाता रहा, मैं संभालती रही,
तू बनाता रहा दीवारें, मैं पलकों से दुआओं की छत बनाती रही
तूने पूछा नहीं-“तुम कैसी हो ?”,
और मैं हर रोज़ तेरी साँसों में खुद को तलाशती रही।

रातें ठंडी होती गईं, बातें बेमानी,
तुम थे मेरे पास, पर जैसे किसी और की कहानी
मैंने सहेजा हर टुकड़ा इस रिश्ते का,
पर एक दिन खुद को ही बिखरा पाया, इस रिश्ते का आइना बनते-बनते।

मैंने चाहा कि तुम मुझे देखो-सिर्फ़ एक बार,
जैसे देखता है कोई बारिश में भीगते गुलाब को
पर तुमने देखा-मुझे बस एक आदत की तरह,
जिसे निभाना ज़रूरी था, पर महसूस करना नहीं।

और तब… मैंने खुद से पूछा,-
क्या यही है वो प्रेम! जिसकी कसम खाई थी हमने ?
या फिर ये एक समझौता था,
जिसमें मेरी भावनाएँ गिरवी रख दी गईं थीं ज़िस्म संग ?

अब मैं चल रही हूँ-किसी और की तरफ नहीं,
बल्कि खुद की ओर, जहाँ मैं फिर से ‘मैं’ बन सकूँ।
अगर कभी मेरी कमी महसूस हो-
तो जानना, मैंने छोड़ा नहीं था, बस थक गई थी निभाते-निभाते…॥