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मैं जिन्दा हूँ!

डॉ. मीना श्रीवास्तव
ठाणे (महाराष्ट्र)
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आप सोच रहे होंगे, कि कहीं यह पुनर्जन्म की दास्ताँ तो नहीं है। जी नहीं, यह तो इसी धरातल पर (अभी तक) बसे पेंशन भोगी (निवृत्ति-निधि भोगी) की कहानी है। किसी ज़माने में सरकारी कुर्सी पर बैठ हर माह वेतन पाकर मर्यादित सुखोपभोग के आदी सरकारी नौकर निवृत्ति के पश्चात् भी अपना दाना-पानी सरकारी तिजोरी से वसूलते रहते हैं। ढलती उम्र के साथ पेंशन की स्थाई निधि बड़ी ही महत्वपूर्ण हो जाती है। “मैं अभी भी स्वयंसिद्धा हूँ”, यह भावना पेंशनर में आत्मविश्वास जरूर जगाती है। कई साल पहले प्रचलित रेडियो सिलोन पर हर माह की पहली तारीख को १९५३ की कृष्णधवल ‘पहली तारीख’ फिल्म का गीत प्रसारित किया जाता था, बड़ा ही असरदार था। किशोर कुमार द्वारा अभिनीत एवं गाया वह गीत कुछ यूँ था-
“दिन है सुहाना आज पहली तारीख है,
खुश है ज़माना आज पहली तारीख है।”
मित्रों, अब इस गीत में पेंशन भोगियों के लिए खलल तब पड़ता है, जब नवम्बर का महीना आता है। ‘कम सप्टेम्बर’ नामक अंग्रेजी फिल्म की तरह ‘कम नवेम्बर’ फिल्म का नाम मैंने तो सुना नहीं। शायद, पश्चिमी देशों में नवम्बर का महत्व उतना नहीं होगा। इसी महीने की ३० तारीख पेंशनधारकों के लिए जीवनदायिनी है, अर्थात अत्यावश्यक है। हमारे जीवन में सरकारी फॉर्म (प्रपत्र) की कितनी बड़ी भूमिका है, यह हम सब जानते हैं। जन्म हुआ नहीं, कि जन्मतिथि प्रमाण-पत्र अनिवार्य हो जाता है। विद्यालय त्याग करने का प्रमाण-पत्र, वेतन प्रमाण-पत्र, तो हैं ही, परन्तु एक प्रमाण-पत्र का औचित्य मुझे अब तक समझ नहीं आया, वह था चरित्र प्रमाण-पत्र! अब जब शारीरिक एवं मानसिक शक्ति की समस्या नहीं थी, तब न जाने ऐसे कितने ही प्रमाण-पत्र लिए, लेकिन अब एक प्रमाण-पत्र जो ३० नवम्बर को देना है, वह है ‘जीवन प्रमाण पत्र’! पूरे सालभर की जिंदगी का निचोड़ अब इस ‘जीवन प्रमाण-पत्र’ में दर्शाया जाता है। कैसा विचलित करने वाला वक्त आ गया है, “अभी तो मैं जवान हूँ” जैसा जिंदादिल गाना मन के बगीचे में उगने को भले ही व्याकुल हो, लेकिन उसे दफनाते हुए “अभी तो मैं जिन्दा हूँ” का राग अलापना पड़ता है।
मित्रों, ५८ वर्ष की उम्र तक नागपुर में ही लगातार सरकारी सेवा में लगे रहने के बाद पता नहीं क्यों मेरी किस्मत की रेलगाड़ी नागपुर के रेल यार्ड में अवकाश ग्रहण करने की बजाय अलग- अलग दिशाओं में अंधाधुन्ध भागने लगी, परन्तु अब कुछ वर्षों से ठाणे-पुणे-ठाणे का सिलसिला चल रहा है। अधिकतर ठाणे की बैंक में जीवन प्रमाण-पत्र लेना जारी है। अधिकतर बैंकों में आप देखिए, भीड़ हो या न हो, आपको उतना ही इंतजार करना होता है। भीड़ न हो तो भी बैंक कर्मचारियों की आपसी गुफ्तगू इंतजार के औसत समय को यथाशक्ति बरक़रार रखने में कोई कसर नहीं छोड़ती। पेंशन भोगी द्वारा पहले लम्बे चौड़े प्रपत्र (फॉर्म ऐसा ही भारी-भरकम होना चाहिए, ऐसा सरकारी नियम है) को भरा जाता है। उसमें कर्मचारी निशान बना देते हैं, कि यह जानकारी देना अनिवार्य है। अगर आप उतनी ही भरकर दें तो, वह दयालुता के भाव भरकर बाकी जानकारी भी भरने का इशारा करता है। खैर, मैं बैंक में हमेशा जिस खिड़की पर नहीं जाना हो, उसी पर चली जाती हूँ, अब तो कतार में खड़े रहना अनिवार्य है। “हम जहाँ खड़े होते हैं, लाइन वहीं से शुरू होती है” यह ‘बिग-बी’ का पेटेंटेड संवाद कहने की जुर्रत हम कैसे कर सकते हैं! आम स्थानों पर जेष्ठ नागरिक होने का लाभ उठाकर मैं कतार में सबसे आगे चली जाती हूँ, पर नवम्बर के महीने में ‘जीवन प्रमाण-पत्र’ हेतु लगी कतार में सभी जेष्ठ नागरिक होते हैं। वहाँ आप सिर्फ पेंशन धारक हैं। नौकरी में आप भले ही बड़े अफसर रहे हों या विभाग प्रमुख, उस प्रतिष्ठित पद एवं कुर्सी की गरिमा का त्याग करते हुए आप अब सामान्य पेंशन भोगी बन चुके हैं। यह सत्य हम जितना जल्द स्वीकार करें, उतना अच्छा! अगर आपने अच्छी भ्रष्टाचार मुक्त सरकारी सेवा दी है, तो उसके परिणामस्वरूप लोग आपका सदैव आदर ही करेंगे, क्योंकि वह आपके पद या कुर्सी का मोहताज नहीं है! अब फिर देखेंगे फॉर्म की बात। कई वर्ष तक मैंने नवम्बर में जैसे-तैसे आवश्यक प्रतिलिपियों के साथ फॉर्म भरे। फिर बड़े बैंक अफसर के समक्ष आप जिन्दा खड़े हैं, इसलिए वह “आप सही मायने में जीवित हैं”, ऐसा मानकर अपने अमूल्य हस्ताक्षर कर देता है। क्या बताऊँ, ऐसा होने पर हर बार अंदर ही अंदर मन झूम उठता था, मानों मैंने ‘स्टार ऑफ़ द मिलेनियम’ अर्थात बिग-बी के हस्ताक्षर प्राप्त कर लिए हैं। फिर वही मूल दस्तावेज मैं अपनी नागपुर की बैंक को डाक द्वारा भेजती रहती थी।
अब डिजिटल जमाना आ गया। फॉर्म का त्याग कर ‘आधार’ कार्ड के आधार पर आपकी उँगलियों की धारियों से आपकी पहचान हो जाती है। फॉर्म से मुक्ति पाकर मैं पिछले कुछ साल तक आनंद का अनुभव कर रही थी, परन्तु इस साल मुझे अपनी बढ़ती उम्र का नए सिरे से अहसास हुआ। बैंक कर्मचारी द्वारा १० की १० अँगुलियों पर कोल्ड क्रीम और वैसलीन जैसे उपचार करने के बावजूद ‘आधार’ कार्ड की मशीन मेरी अँगुलियों के निशान पहचानने में असफल रही। यह उपक्रम बहुत देर तक आजमाया गया। कतार में मेरे पीछे खड़े पेंशन भोगी मुझे मन ही मन जरूर कोस रहे होंगे। फिर पारम्परिक तरीका अपनाकर फॉर्म भरा और बैंक में भेज दिया। ईश्वर से प्रार्थना है कि मेरे जिन्दा रहने का एकमात्र सबूत वह चिठ्ठी बैंक की सही मेज पर पहुँचे। ई-मेल का आधार भी है।
मित्रों, मजाक ख़त्म! आज तक कितने ही स्थानों से मैंने जीवन प्रमाण-पत्र भेजा, परन्तु आज तक किसी भी वर्ष मेरी पेंशन प्राप्ति में बाधा नहीं आयी। सम्बंधित बैंक कर्मचारियों और अधिकारियों की दिल से आभारी हूँ कि उन्होंने मुझे हर नवम्बर को नया जीवनदान दिया!
मैंने सुना है कि चेहरे से, यानी आँखों की पुतलियों के रंग से व्यक्ति की पहचान हो सकती है। बड़े विमानतल पर उपलब्ध ‘डिजीयात्रा’ द्वारा ऐसा मैंने ही नहीं, कितने ही यात्रियों ने इस सुखद अनुभव लिया है।

प्रिय मित्रों, जब भी आत्म निर्भरता का सवाल आता है, सबसे बड़ी चीज है आर्थिक स्वतंत्रता। अगर पेंशन भोगी की राशि उसके बच्चे या अन्य कोई अपनी मर्जी से खर्च कर रहे हैं और उसे नाममात्र का एवज दे रहे हैं तो, सोच-विचार आवश्यक है दोनों के लिए। उम्र चाहे जो हो, आपकी संपत्ति पर आपका प्रथम अधिकार है। आपको पेंशन इसलिए मिल रही है कि आपने खून-पसीना बहाकर अपने सर्वोत्तम वर्ष सरकारी यंत्रणा को बहाल किए हैं। जो बीज आपने बोए थे, अब उसके मीठे फल पहले आप खाइए और बाद में इच्छानुसार उनका बँटवारा कीजिए। मेरा विचार है कि समाज ने मुझे बहुत कुछ दिया है, अब समय है कि इन फलों में से कुछ समाज के जरूरतमंद व्यक्तियों को दूँ। आपका क्या विचार है…?