कुल पृष्ठ दर्शन : 10

मैं बिजली विभाग का प्रमुख होता…

डॉ. शैलेश शुक्ला
बेल्लारी (कर्नाटक)
****************************************

सरकारी दफ्तरों में जो बिजली सबसे ज्यादा जलती है, वह मीटर से नहीं, ‘कमीशन कनेक्शन’ से जलती है। और अगर बात हो इलेक्ट्रिकल विभाग की, तो समझिए यह विभाग बिजली का नहीं, चालाकियों का हाई वोल्टेज ट्रांसफॉर्मर है;जहाँ तारों से नहीं, तरकीबों से करंट दौड़ता है। मैं जब किसी खराब बल्ब को देखकर खुद ठीक करने की कोशिश करता था, तब सोचता था-काश! मैं इलेक्ट्रिकल विभाग का प्रमुख होता!
◾चलते को ‘खराब’ कर देना और मुफ्त में मालामाल-
सरकारी दफ्तरों में एयर कंडिशनर अगर सही चलता है, तो यह तकनीकी उपलब्धि नहीं, भ्रष्टाचार में बाधा है। इसलिए पहला काम होता है-‘सिस्टम डाउन’ कर देना। यानी जो ‘एसी’ पंखा दे रहा है, उसे फर्जी रिपोर्ट में ‘नॉन-फंक्शनल’ दिखाना। फिर कबाड़ के भाव उसे टेंडर में चढ़ाना और बाद में वही एसी विभागाध्यक्ष के साले साहब के ड्राइंग रूम की शोभा बन जाता है।मज़ेदार बात यह कि वह ‘एसी’ वहाँ भी ‘वर्किंग कंडीशन’ में ही काम करता है। पूछो तो जवाब मिलता है-“हमने मरम्मत करवा ली।” और फिर तुरंत नया ‘एसी’ लगवाने का टेंडर पास, क्योंकि “सीनियर ऑफिसर को गर्मी लगती है।” विक्रेता आता है, ५० हज़ार का एसी १.५ लाख में बेचा जाता है और उसकी मोटी ‘थैली’ साहब के ब्रीफकेस में पहुंच जाती है। काश! मैं भी इस ‘एयर-कंडीशंड कमाई’ का हकदार होता! मैं भी हर बार नया एसी लगवाकर अपने ड्रॉइंग रूम को ‘शो रूम’ बना देता। सोचकर ही पसीना आता है और फिर खुद को कहता हूँ-काश! मैं इलेक्ट्रिकल विभाग का प्रमुख होता।
◾बल्ब नहीं, चालाकियाँ जलती हैं-
इलेक्ट्रिकल विभाग की सबसे बड़ी कला है-रखरखाव। जो बल्ब ३ महीने चलता है, उसकी रिपोर्ट हर महीने बनाई जाती है। जो स्विच बोर्ड बदलने की ज़रूरत नहीं, उसकी जगह नया बोर्ड हर बार आता है, क्योंकि पुराना बोर्ड “सरक गया था”। सारा खेल होता है वार्षिक रखरखाव अनुबंध का। कंपनी वही आती है जो साहब की पसंदीदा हो, क्योंकि वहां से सीधा ‘कैशबैक’ आता है। मरम्मत के नाम पर कभी वायर बदले जाते हैं, कभी ट्यूब लाइट और कभी पूरे ट्रंकिंग सिस्टम को ही ‘अपग्रेड’ कर दिया जाता है। अंदरखाने का सूत्र यही कहता है-“जितनी बार खराब होगा, उतनी बार बिल बनेगा।” इसलिए जान-बूझकर वैसे उत्पाद खरीदे जाते हैं, जो जल्दी खराब होते हैं, क्योंकि अगर उपकरण टिकाऊ हो गए, तो ‘कमाई टिकाऊ’ कैसे होगी ? मैं सोचता हूँ, क्या गज़ब का नवाचार है-‘फेल्योर’ को ‘फाइनेंस’ में बदलने का! सच में, काश! मैं इलेक्ट्रिकल विभाग का प्रमुख होता।
◾निरीक्षण का रिमोट और फुल सपोर्ट सिस्टम-
हर कुछ महीनों में जब मुख्यालय से निरीक्षण दल आता है, तो साहब की तैयारी किसी विवाह समारोह से कम नहीं होती। ‘एसी’ की हवा तेज़ कर दी जाती है, लाइटिंग का लेवल ‘फोटो फ्रेंडली’ हो जाता है और सबसे ज़रूरी ‘वेलकम पैकेज।’ इसमें शाम को होटल में ‘कॉकटेल डिनर’, २-३ ‘कल्चरल डांसर’ और ‘वीडियो रिकॉर्डिंग’ का गुप्त इंतजाम भी शामिल होता है। अगर निरीक्षक महोदय किसी कारण से रिपोर्ट में ‘कमी’ दिखाना चाहें, तो उन्हें रात्रिभोज के साथ एक फाइल मिलती है-जिसमें उनका पुराना ‘डांसिंग मूड’ वीडियो होता है। फिर क्या ? निरीक्षण की फाइल में सब कुछ ‘प्रशंसनीय’, ‘मानक अनुसार’ और ‘नवोन्मेषकारी’ लिखा जाता है। मैं हैरान होता हूँ कि भ्रष्टाचार के इस हाई वोल्टेज में किसी का फ्यूज तक नहीं उड़ता! सोचता हूँ, अगर मैं यह वीडियो-प्रबंधन सीख जाता, तो सारे ईमानदार अधिकारियों को भी अपने ‘स्मृति एल्बम’ में शामिल कर लेता। अफ़सोस, अब भी सोचता हूँ-काश! मैं इलेक्ट्रिकल विभाग का प्रमुख होता!
◾ठेकेदारों से ‘करंट वाला’ रिश्ता-
सिविल विभाग की तरह बिजली विभाग भी ठेकेदारों से चला करता है, पर यहाँ ठेका केवल वायर्स या पंखों का नहीं, रिश्वत का भी होता है। ठेकेदार जितना बड़ा एस्कॉर्ट लाता है, उतना बड़ा अनुबंध पा लेता है। जो अपने साथ कूलर नहीं, बल्कि कूल लड़कियाँ लाता है, उसका टेंडर बिना बिजली देखे ही पास हो जाता है। जब कोई नया भवन बनता है, उसमें पूरी वायरिंग, पैनल बोर्ड, एमसीबी आदि के लिए पहले से ‘सेट प्लान’ होता है-कीमत ५ लाख, बिल ५० लाख, क्योंकि साहब का मोटिव यही होता है-“माल पुराना भले हो, कमाई नई होनी चाहिए”, पर अफ़सोस, फिलहाल मैं बस गर्मी से झुलसताहूँ और सोचता हूँ-काश मैं इलेक्ट्रिकल विभाग का प्रमुख होता।
◾‘पावर कट’ का पावर गेम-
सरकारी भवनों में बिजली तो जाती है, लेकिन कमाई का करंट तब आता है जब जनरेटर स्टार्ट होता है। जनरेटर जितना धुआँ छोड़ता है, उससे ज़्यादा ‘कैश फ्लो’ छोड़ता है। कितनी बार देखा गया कि बिजली नहीं गई, फिर भी जनरेटर चला दिया गया-क्यों ?, क्योंकि डीज़ल का बिल बनेगा। और बिल भी ऐसा कि लगे पूरे गाँव को बिजली दे दी गई हो। इसमें कंपनी से डीज़ल आता है ६० लीटर, बिल बनता है २०० लीटर का। बाक़ी का डीज़ल कहाँ गया ? ‘डिपार्टमेंटल ट्रांसफर’ यानी विभागाध्यक्ष की गाड़ी, उनके साले की मोटरसाइकिल और चहेते बाबू की स्कूटी तक सबका पेट भरा जाता है। इतना ही नहीं, जब जनरेटर पुराना हो जाता है, तो उसे कबाड़ बताकर बेच दिया जाता है-और नया जनरेटर ‘उसी कंपनी’ से आता है, जो पहले से तय होती है। अगर मैं होता विभाग का हेड, तो हर जनरेटर में ‘इनविज़िबल डीज़ल मीटर’ लगा देता-जिससे हर महीने लाखों का ‘देखा-अनदेखा’ लाभ मेरे खाते में आ जाता। सच पूछिए तो जनरेटर चालू हो या न हो, उसकी आमदनी तो हमेशा चालू रहती है। सोचता हूँ-काश! मैं इलेक्ट्रिकल विभाग का प्रमुख होता!
◾बिल और वॉल्टेज में हेराफेरी-
किसी सरकारी इमारत का बिजली बिल करोड़ों में आता है, लेकिन उसमें जो बिजली होती है, वह विभाग की कम और अधिकारियों की ज़्यादा होती है। साहब के सरकारी आवास, उनके बेटे के कोचिंग सेंटर और साले के गेस्टहाउस तक-सब जगह ऑफिस के मीटर से बिजली पहुँचाई जाती है।
कई बार देखा गया है कि मीटर से सीधे ‘सप्लाई’ उठाकर निजी उपयोग में ली जाती है और बिल फिर भी ‘सरकारी खाते’ से कटता है। यही नहीं, अगर किसी महीने बिल ज्यादा आ जाए तो पुरानी पेंडिंग यूनिट्स को ‘एडजस्ट’ कर दिया जाता है। और जो बिजली चोरी पकड़ी जाए, उसका जिम्मेदार बना दिया जाता है किसी संविदा कर्मी को। काश! मुझे भी मीटर की रीडिंग के साथ ‘कमीशन की रीडिंग’ मिलती, तो मैं भी हर बिल को ‘बिल्डिंग ब्लॉक’ की तरह चढ़ाता चला जाता, लेकिन अब तो मेरी जेब में बैटरी भी डाउन है और मैं खुद भी पावर सेविंग मोड में हूँ। सोचता हूँ-काश! मैं इलेक्ट्रिकल विभाग का प्रमुख होता!
◾बिजली से ज्यादा करंट रिश्वत में-
मैं केवल एक निष्कर्ष पर पहुँचता हूँ-बिजली के तारों में जितना करंट नहीं, उससे ज़्यादा करंट विभागीय योजनाओं में है। यहाँ ट्रांसफॉर्मर का फ्यूज उड़ने से पहले ‘नीति की नैतिकता’ का फ्यूज उड़ चुका होता है। जहाँ पंखा, बल्ब, इन्वर्टर, जनरेटर, मीटर, बैटरी और स्मार्ट घड़ी-हर चीज़ की कीमत दोगुनी इसलिए होती है ताकि आधी जेब में जाए। और जो लोग इसे रोकने आते हैं, उन्हें ही ‘खास स्वागत’ देकर हिस्सा दे दिया जाता है। यह विभाग ‘इलेक्ट्रिकल’ नहीं, ‘इनफ्लुएंशियल’ हो चुका है-जहाँ रोशनी के नाम पर अंधेरा फैलाया जाता है और अंधेरे में ‘खुला खेल’ चलता है। काश! मैं भी इस विभाग का प्रमुख होता… तो मैं भी रोज २-२ बल्ब बदलकर २ बंगलों का मालिक बन जाता…!