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मोबाइल के कीड़े क्यों

हरिहर सिंह चौहान
इन्दौर (मध्यप्रदेश )
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जब मोबाइल नहीं था,
ज़िन्दगी बहुत खुशनुमा थी
ना किसी से झूठ बोलते थे हम,
फिर क्यों बन गए हम मोबाइल के कीड़े।

अब बहुत दूरियाँ बढ़ गई,
समय किसी के पास नहीं बचा
फिर भी घंटों बिता रहे इससे,
क्यों बन गए हम मोबाइल के कीड़े।

संदेशे आते-जाते इसमें ‘व्हाट्सप्प’ पे दूर-दराज के,
पर वह आत्मीयता कहाँ ?
‘रील’ बनाने के चक्कर में ‘रियल’ से दूर हो गए,
क्यों बन गए मोबाइल के कीड़े।

हर पल हर वक्त दिन हो या रात,
आनलाइन रहना ही पड़ता है
कितने लाइक, कितने कमेंट के चक्कर में चैन खो गया है,
क्यों बन गए हम मोबाइल के कीड़े।

बिन मोबाइल सब सूना लगता है,
उसे देखे बिना बच्चे खाना नहीं खाते हैं।
वह नहीं मिलता तो रोते हैं,
क्यों बन गए हम मोबाइल के कीड़े ???