सरोजिनी चौधरी
जबलपुर (मध्यप्रदेश)
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मुझे याद आता है घर वो पुराना,
सुकूँ था, न था कोई यूँ ग़म का मारा
रहते थे सब साथ मिल एक घर में,
सदा बनते एक-दूसरे का सहारा।
है अब हाल ऐसा बुरा है फसाना,
मैं हूँ और मैं हूँ यही बस जान
पिता-माता को भी न कोई सहारा,
परदेश में पुत्र, करें कैसे गुज़ारा ?
सजते-सँवरते थे चौपाल पहले,
बुजुर्गों की महफ़िल न थे वे अकेले
अदब से सभी उनका सम्मान करते,
सदा पैर छू करके आशीष लेते।
मगर अब तो पहचानते ही नहीं है,
कमीं उनकी स्वीकारते ही नहीं हैं
संस्कार अपने भुलाते गए हैं
नए युग में आ भूल सब ये गए हैं।
तहज़ीब अपनी नहीं याद इनको,
छोट-बड़े का नहीं ध्यान इनको।
शर्मो-हया का है निकला जनाजा,
नहीं भाता शायद उम्र का है तक़ाज़ा॥