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ये कौन आज आया सवेरे-सवेरे ?

डॉ. मीना श्रीवास्तव
ठाणे (महाराष्ट्र)
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नया सबेरा, नयी आशाएँ, नए संकल्प…

आप सबको नववर्ष की अनेक शुभकामनाएं!
बीते ज़माने में रेडियो सिलोन पर पंकज मलिक के स्वर में बजते “ये कौन आज आया सवेरे-सवेरे, के दिल चौंक उट्ठा सवेरे-सवेरे” इस गीत के शब्द मन के समुन्दर की गहराई से उभर आए। मौका था १ जनवरी २०२५ की सुनहरी सुबह का। हुआ यह कि ३१ दिसम्बर २०२४ की रात्रि को हमने जल्द ही अलविदा कह डाला था और वह लुप्त होकर अँधेरे में कब लुप्त हुआ, इसका अंदाजा हमें नहीं था। १ जनवरी की तारीख से बेखबर स्वनिर्मित समय-सारिणी से प्रेरित प्रकृति हर रोज की तरह चहचहाते पंछियों, महकते पुष्पों, बौराए खेत- खलिहानों, मंद-शीतल-सुरभित समीर और खिलखिलाते झरनों समेत उगते सूरज का स्वागत करने में जुटी थी। फिर ऐसा क्या अलग था इस प्रभात बेला में ? रह-रह कर सोचने के उपरांत ‘१ जनवरी’ नामक तारीख में वह जवाब मिला। यह कोई अदालत में वादी और प्रतिवादी को मिलने वाली निर्जीव ‘तारीख पे तारीख’ वाली तारीख नहीं थी।
ठीक १ वर्ष पहले इसी तारीख ने हमारे दरवाजे पर जोशीली दस्तक दी थी। फिर क्या था! १-१ एक दिन ‘स्वप्न झरे फूल से’ की भांति उसी तरह फिसल गया, जिस तरह मोतियों की माला से १-१ मोती धरती पर ढह जाए। इस दर्दभरे एहसास के साथ ही हमने वर्ष २०२४ को ‘गुजरा हुआ जमाना आता नहीं दुबारा, हाफिज खुदा तुम्हारा’ भावुक गीत को गाकर अलविदा कहा।
मित्रों, वर्ष पर वर्ष बीतते रहते हैं और यह ‘१ जनवरी’ आने वाले समय के घूँघट में अपना सुन्दर मुख छुपाकर हमारे द्वार पर ऐसी मन मोहिनी दस्तक देती है, जिसमें हरी-लाल चूड़ियों की मंजुल खनक होती है। अनायास ही नए वर्ष की नयी उमंग अंग-अंग में नवीन चेतना का अहसास कराती है। ‘१ जनवरी’, मानों मुस्कुराकर हमसे कहती है, “आओ मेरे साथ बगीचे में, इधर देखो तो इस नए लाल कोपल की खूबसूरती को और अनुभव करो उसकी ऊर्जा को, उधर यह गुलाब की कली, कंटीली टहनी में से उठकर खिलने ही वाली है एवं अपनी सुगंध को धीरे- धीरे बहती पवन के साथ प्रवाहित कर रही है। हरी दूब पर नन्हीं-नन्हीं ओस की बूँदें तुम्हारे पैरों को शीतलता प्रदान कर रही है। क्या इस ऊर्जा का एहसास आज कुछ अलग नहीं लगता ?” जब इस नव चेतना की लहरें शरीर, मन और आत्मा तक पहुंची, तब एक नयी सिहरन का आभास हुआ। ‘जो बीत गई, सो बात गई’ इस प्रसिद्ध कविता में हालावाद के प्रवर्तक कवि श्रेष्ठ हरिवंश राय बच्चन कहते हैं-
“अम्बर के आनन को देखो
कितने इसके तारे टूटे,
कितने इसके प्यारे छूटे,
जो छूट गए फिर कहाँ मिले,
पर बोलो टूटे तारों पर
कब अम्बर शोक मनाता है।”
कितनी सुन्दर सीख है इन काव्य-पंक्तियों में! गए वर्ष में असफलता हाथ लगी, तो उसे बीता हुआ कल समझ कर आज फिर नए सिरे से जीने के लिए तत्पर हो जाओ। जीवन का नाम ही संघर्ष है। अगर संघर्ष ना हो तो जीवन रसहीन है। बहुत बार ऐसा होता है कि हम जी जान से किसी कार्य में जुट गए, परन्तु मंजिल तक पहुँचते हुए लहूलुहान हो गए। सफलता हमारे हाथ नहीं लगी। विद्यार्थी दशा में यह अनुभव कई बार आते हैं, लेकिन अगले वर्ष और अधिक परिश्रम करना होगा, इस प्रण ने कई छात्रों के जीवन को उबारा और संवारा। आज के इस प्रयत्नवाद से ही कल की सफलता की गूँज सुनाई देगी। हमें यह अवश्य स्मरण है, कि सरिता तरंगिणी के प्रवाह को रोकने वाली कई चट्टान आती हैं, लेकिन वह उन चट्टानों की बाधा को पार कर ही लेती है। समय बड़ा बलवान होता है। अगर हमने किसी प्रिय को खोया है, तो उसकी स्मृतियाँ आज भी हमारे साथ हैं। वक्त का मरहम उसको खोने के जख्मों को धीरे-धीरे भरता है। यही तो नववर्ष का संदेस है हमारे लिए, कि किसी भी प्रकार की बाधा हो, संकट हो या हानि हो, उससे उबरना हो तो, इस विकट परिस्थिति का डट कर कर सामना करते हुए नयी राहें और मंजिलें खोजो तथा उसी दिशा में अग्रसर हो जाओ। अगर आपका इरादा नेक है तो कभी निराश न होना। उत्साह से भरी इन पंक्तियों का स्मरण जरूर करें-
“मैं अकेला ही चला था जानिब-ए-मंज़िल मगर,
लोग साथ आते गए और
कारवाँ बनता गया।”
इस सिलसिले में मुझे गांधी जी की ‘दांडी यात्रा’ का स्मरण हुआ। भारत में अंग्रेज सरकार द्वारा लगाए गए जुल्मी ‘नमक कानून’ के खिलाफ भारी असंतोष फैला था। भारी भरकम कर लगाकर अंग्रेज सरकार ने अपनी अमानवीयता की सीमा लाँघ दी थी। वर्ष १९२९ को लाहौर में आयोजित भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अधिवेशन में ‘नमक सत्याग्रह’ का विचार सामने आया। गांधी जी के कुछ करीबी लोग भी यह जानकर आश्चर्यचकित रह गए कि, नमक का मुद्दा स्वतंत्रता संग्राम का हिस्सा हो सकता है। १२ मार्च १९३० को गांधी जी और उनके मात्र ७८ अनुयायी, जिनमें २ मुस्लिम, १ ईसाई और २ अछूत शामिल थे, साबरमती आश्रम से बाहर निकले। २५ दिनों के बाद ५ अप्रैल १९३० को जब गांधी जी अपनी यात्रा के नियोजित स्थल दांडी पहुंचे तो उनके साथ कई हजार लोगों की भीड़ थी। ६ अप्रैल १९३० को बड़े सवेरे गांधी जी ने अरब सागर के किनारे पर सूर्य की तपती गर्मी के कारण नमक की जो परतें इकठ्ठा हुईं थीं, वहाँ स्वयं आगे बढ़ते हुए नमक अधिनियम का उल्लंघन किया एवं उस नमक को अपनी मुट्ठी में उठा लिया! तब जाकर अंग्रेजों को गांधी जी के साथ दृढ़ता से आभास हुआ। यह ऐतिहासिक यात्रा भारत के स्वतंत्रता संग्राम का स्वर्णिम अध्याय बनकर अमर हो गई।
१ जनवरी की यह अनोखी तारीख हमें कुछ नयी प्रतिज्ञा करने के लिए प्रेरित करती है। नयी आशा, नयी जिज्ञासा और नवीन प्रयत्नों के अंकुर पनपने लगते हैं। उदाहरण दूँ तो मैंने १ जनवरी से रोज ३-४ किलोमीटर चलने का निर्णय लिया। जनवरी-फरवरी तक यह सिलसिला चला, अब आहिस्ता-आहिस्ता उत्साह में शिथिलता आने लगी। फिर तेज धूप आयी, फिर बारिश आयी, फिर ठण्ड… ऐसा करते हुए यह सिलसिला रुक गया। अब जब नयी १ जनवरी आयी तो फिर से वही प्रण! यह कमजोर प्रण का कमजोर अमल दर्शाता है। दृढ़ निश्चय हमें बारम्बार उसी प्रण करने की विवशता से उबरने के प्रेरित करेगा। आम तौर पर यह धारणा है, कि हमारे देश में कानून इसीलिए बनते हैं कि वे तोड़े जा सकें। अगर हम चाहते हैं कि हमारे देश में मजबूत क़ानूनी व्यवस्था हो तो इस मानसिकता को बदलना होगा। प्रारम्भ हमें स्वयं से करना होगा। शारीरिक, बौद्धिक या मानसिक अवस्था से सम्बंधित कोई भी व्यायाम हो, उसमें आत्म-अनुशासन अवश्य हो। इसका पालन करने का प्रारम्भ करने के लिए १ जनवरी जैसा शुभ अवसर कहाँ मिलेगा ? प्रण छोटा हो या बड़ा, उसे करने मात्र से लाभ नहीं होगा, उसे निभाना है आत्मशक्ति बल से, ताकि अगली १ जनवरी को हम नया प्रण लेने के बारे में सोच सकें। कवि-हृदयी भूतपूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की प्रेरक पंक्तियाँ हममें नव ऊर्जा, उल्लास, उमंग और उत्साह भर देती हैं-
“गीत नया गाता हूँ,
टूटे हुए तारों से फूटे वासंती स्वर
पत्थर की छाती में उग आया नव अंकुर
झरे सब पीले पात, कोयल की कुहुक रात
प्राची में अरुणिमा की रेख देख पाता हूँ
गीत नया गाता हूँ।

टूटे हुए सपनों की कौन सुने सिसकी
अंतर की चीर व्यथा पलकों पर ठिठकी
हार नहीं मानूँगा, रार नहीं ठानूँगा
काल के कपाल पे लिखता मिटाता हूँ
गीत नया गाता हूँ।’

आइए, हम सभी इन प्रेरणादायी एक-एक शब्द को अंतर्मन में समाहित कर नए वर्ष में नवचेतना से भर कुछ नया कर गुजरने की ठान लें।