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रक्षा सूत्र का प्रण

डॉ. मुकेश ‘असीमित’
गंगापुर सिटी (राजस्थान)
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रक्षाबंधन विशेष…

पुकार रही हूँ,
शब्दों में लिपटी करुणा के साथ
मेरी स्निग्ध आशा की अनुगूँज,
तुम्हारी आत्मा के भीतर कहीं,
घुल जाए
इस रक्षा सूत्र का संकल्प।

दरवाजों पर दस्तक देती,
ये वहशी दरिंदगियाँ
जिनके साये में भी,
सिहर उठती है मेरी आत्मा
वे खूनी पंजे जो समाज की दरारों में,
जड़ें फैला रहे हैं
कब तक बच पाऊँगी मैं ?

तुम्हारी प्रतिज्ञा,
रक्षा सूत्र की
मेरे विश्वास की निधि बन जाए,
नज़रें उठी नहीं
कि सिहरन-सी उठती है,
इनकी दृष्टियाँ
जो घिनौनी दरिंदगी में डूबी हैं।

रक्षा के इस कोमल धागे में, आश्रित मैं
पर आश्रय मात्र से,
नहीं मिटते हैं भय
तुम्हारे प्रण की मशाल से,
सुलग उठेगी
मेरी सुरक्षा की लौ।

संकल्प की जड़ें,
इनकी जड़ों से गहरी हों
तुम्हारी रक्षा की कसम,
विनाश का स्वरूप ले
इन भेदी दानवों को,
राख कर दे
जिस राख पर नए जीवन की,
बुनियाद रख सकूँ मैं।

तुम्हारे हाथों की कसावट,
इस रक्षा सूत्र की गाँठ में
मेरे विश्वास के नए संध्यक्षण लिखे,
कि तुम बनो मेरी ढाल
मेरा संकल्प,
मेरा विश्वास
और इस त्यौहार की विशुद्ध पवित्रता।

आओ, प्रण लो,
कि मेरी आवाज़
कभी निःशब्दता न हो,
तुम्हारे संकल्प के लिए
मैं खड़ी रहूँगी,
समाज के हर भेदी से लड़ने
तुम्हारे संग।

इस रक्षाबंधन,
सिर्फ रक्षा का वादा नहीं;
बल्कि संकल्प की संकल्पना।
उन दरिंदों से,
जो छिपे हैं अंधेरों में॥