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‘राधाष्टमी’ प्रेम के शाश्वत आदर्श का उत्सव

डॉ. मुकेश ‘असीमित’
गंगापुर सिटी (राजस्थान)
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भारतीय संस्कृति में प्रेम का चरम रूप यदि कहीं मूर्त होता है, तो वह राधा और कृष्ण के संबंध में। जब हम राधाष्टमी के पावन अवसर पर राधा को स्मरण करते हैं, तो यह केवल किसी देवी के जन्म का उत्सव भर नहीं है, बल्कि यह प्रेम के उस शाश्वत आदर्श का उत्सव है, जो आत्मा और परमात्मा के मिलन का प्रतीक है। राधा का नाम आते ही हमारे सामने एक ऐसा व्यक्तित्व खड़ा होता है, जो केवल सौंदर्य या श्रृंगार तक सीमित नहीं है, बल्कि त्याग, समर्पण, करुणा और आत्म विस्मृति का जीवंत रूप है। कृष्ण स्वयं में पूर्ण हैं, किंतु राधा के बिना अधूरे। यही कारण है, कि भक्त कवियों ने सदियों से कृष्ण का नाम राधा के बिना नहीं लिया- ‘राधे-श्याम’, ‘राधा-कृष्ण।’ यह जोड़ अनायास नहीं है;यह आध्यात्मिकता और प्रेम की पूर्णता का बोध कराता है।
साहित्य में राधा-कृष्ण का प्रेम केवल लौकिक नहीं है। सूरदास, रसखान, नन्ददास, चतुर्भुजदास और बिहारी ने उनके संबंध को मान-मनुहार, मिलन-विरह और रास-लीला के माध्यम से चित्रित किया। सूरदास की वाणी में राधा का मान एक स्त्री का स्वाभाविक अहंकार नहीं, बल्कि प्रेम की गहराई है, जिसमें प्रिय की उपेक्षा असहनीय हो जाती है। वहीं रसखान जैसे भक्त मुस्लिम होते हुए भी गोकुल की गोपियों में राधा का रूप देखकर स्वयं को उसी संसार में बसाने की लालसा करते हैं।

राधा के बिना कृष्ण का सौंदर्य, लीलाएँ और बाँसुरी अधूरी हैं। राधा वह दर्पण है, जिसमें कृष्ण का रूप झलकता है। यही कारण है, कि कवि बिहारी ने लिखा-“राधा के नयन बिना, मोहन की छवि अधूरी है।” यह अधूरापन ही राधा की अनिवार्यता को सिद्ध करता है।
यदि हम दार्शनिक दृष्टि से देखें तो राधा केवल एक स्त्री नहीं, बल्कि आत्मा का रूपक हैं। कृष्ण, जो सर्वव्यापी ब्रह्म हैं, उनसे मिलन के लिए आत्मा का छटपटाना ही भक्ति है। राधा का प्रेम वियोग में भी उतना ही प्रबल है जितना मिलन में। यही प्रेम भक्ति रस का मूल है-जहाँ पाने की नहीं, केवल समर्पित होने की इच्छा है।
जयदेव के ‘गीत गोविंद’ में राधा-कृष्ण का प्रेम काम और अध्यात्म के अद्भुत संगम के रूप में प्रस्तुत है। वहाँ राधा का विरह केवल शारीरिक अनुपस्थिति का दु:ख नहीं, बल्कि उस चेतना की पीड़ा है जो अपने परम प्रिय को खो बैठी है। उस विरह की अग्नि में ही आत्मा तपकर शुद्ध होती है और मिलन की ज्योति में विलीन हो जाती है।
आज के समय में जब संबंधों में स्वार्थ और अपेक्षाओं का बोझ बढ़ता जा रहा है, राधा-कृष्ण का प्रेम हमें सिखाता है कि सच्चा प्रेम अधिकार से नहीं, समर्पण से जीवित रहता है। राधा ने कभी कृष्ण से कुछ माँगा नहीं, उन्होंने केवल अपना सर्वस्व उन्हें अर्पित किया। इसी अर्पण से वह अनंत की सहभागी बन गईं।
राधाष्टमी का संदेश यही है कि प्रेम को भौतिकता से ऊपर उठाकर देखा जाए। यह केवल पुरुष-स्त्री का संबंध नहीं, बल्कि साधक और साध्य का संगम है। राधा-कृष्ण की लीलाएँ हमें यह बताती हैं कि प्रेम का असली सौंदर्य उसमें है जहाँ वियोग भी साधना बन जाए और मिलन भी मोक्ष का अनुभव करा दे।आज जब हम राधाष्टमी मनाएँ, तो यह केवल पूजा-पाठ तक सीमित न रहे। हमें यह स्मरण रखना चाहिए कि राधा की तरह निष्काम, निष्कलुष और आत्मविस्मृत प्रेम ही जीवन को सुंदर बनाता है। यही प्रेम मनुष्य को उसके वास्तविक स्वरूप तक ले जाता है।
राधा का सौंदर्य और राधा-भक्ति दोनों ही भक्ति कालीन कवियों का अत्यंत प्रिय विषय रहे हैं। कवियों ने राधा को केवल सौंदर्य की मूर्ति नहीं, बल्कि आध्यात्मिक साधना का मार्गदर्शक भी माना। कुछ महत्वपूर्ण पद और उनके रचनाकारों के नाम दे, जिनमें राधा का सौंदर्य और आध्यात्मिक दृष्टि दोनों झलकते हैं-
सौंदर्य पक्ष→ सूरदास, बिहारी, चतुर्भुजदास ने अत्यधिक विस्तार से राधा के नख-शिख वर्णन किए।
भक्ति और अध्यात्म पक्ष→ रसखान, जयदेव और नन्ददास ने राधा को आत्मा और परमात्मा के संगम का प्रतीक बनाया।
🔹सूरदास (सूरसागर)
विषय-राधा का सौंदर्य और मान-मनुहार
“श्री राधा रूप रसालिनी, सुरनरमुनिजन मन मोहिनी। तजि सब ब्रज नारि तुला नाहीं, जासु अङ्ग की अरुणा लोनि॥”
सूरदास राधा को ब्रह्माण्ड की अद्वितीय सुंदरी मानते हैं। उनका रूप स्वयं देवताओं, मुनियों और मनुष्यों को मोहित कर लेता है।
🔹रसखान (प्रेमवाटिका)
विषय-राधा की भक्ति और आत्मिक आकर्षण
“राधा के तन की छबि देख्यौं, तन मन की सुधि भूलि गए। रसखान ता छबि की सरिसि, और न दूजी भूलि गए॥”
रसखान बताते हैं कि राधा का रूप देखकर साधक देह और मन की सुधि खो बैठता है-यह प्रेम आत्मा को परमात्मा से जोड़ देता है।
🔹जयदेव (गीत गोविंद)
विषय–राधा का आध्यात्मिक वियोग
“प्रियाः प्राणेश्वरः स खलु हृदयेशः।किं ते हृदि न वर्तते॥”
-जयदेव की राधा का सौंदर्य केवल रूप का नहीं, बल्कि हृदय की तड़प और भक्ति की साधना का है। उनका वियोग ही साधक का आध्यात्मिक ताप है।
🔹बिहारीलाल (सतसई)
विषय–राधा का सौंदर्य और अलौकिक आभा
“सूर सरसिजनि सीलि सी, रूप सरसिजनि रूप। बिहारी देखत तृपित न, चितवनि सरसिजनि चुप॥”
-बिहारी ने राधा की आँखों की तुलना कमल से की-सौंदर्य और शील से भरी हुई। उनकी दृष्टि ही आध्यात्मिक अनुभव करा देती है।
🔹चतुर्भुजदास (अष्टछाप)
विषय–राधा का रूप और कृष्ण से मिलन
“पिय सन मुख गवनति गज गामिनि।नख-सिख अंग अंग अभिरामिनि॥”
-यहाँ राधा गजगामिनी चाल से सज-धजकर अपने प्रिय कृष्ण की ओर बढ़ रही हैं। यह रूपक केवल शारीरिक सौंदर्य नहीं, बल्कि आत्मा का परमात्मा की ओर गमन है।
🔹नन्ददास (अष्टयाम)
विषय–राधा का प्रेम और समर्पण
“राधा रानी रूपवति, माधव संग रच्यो रस।नन्ददास गुन गावत, गोकुल भयो हरष॥”
-राधा के सौंदर्य में माधुर्य और अध्यात्म का संगम है। उनका कृष्ण के प्रति समर्पण ही भक्ति का चरम है।