हेमराज ठाकुर
मंडी (हिमाचल प्रदेश)
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लोकसभा चुनाव…
अनेकता में एकता की क्षमता रखने वाले विविध जाति, धर्म और संप्रदायों के देश भारत की राजनीति को समझना इतना आसान नहीं है, जितना आम तौर पर सोचा जाता है। इसी राजनीतिक समझाइश के चलते भारत के सभी राजनीतिक दलों ने २०२४-२९ का चुनावी युद्ध मई-जून २०२४ में लड़ा। राष्ट्रीय दलों ने राष्ट्र स्तर पर तो क्षेत्रीय ने अपने-अपने क्षेत्रों या राज्यों में लड़ा। इस चुनाव में अधिकतर दल २ मुख्य राजनीतिक संयुक्त घटकों में लड़े, जिसमें ‘इंडिया गठबंधन’ को २३४ तो ‘राजग गठबंधन’ को २९२ सीटें प्राप्त हुई। दोनों दलों ने चुनाव के बीच अपने-अपने दावे पेश किए। इंडिया गठबंधन ने २९५ सीट आने का अनुमान लगाया था, तो राजग गठबंधन ने ‘अबकी बार ४०० पार’ का नारा बुलन्द किया। चुनावी प्रक्रिया का सातवां चरण जैसे ही समाप्त हुआ, तो इधर इलेक्ट्रानिक और सोशल मीडिया भी अपना ‘एक्जिट पोल’ घोषित करने में लग गया। हर टी.वी. चैनल में इस मुहिम की भरमार-सी मची। पोल में अधिकतर सीटें राजग गठबंधन को जाती दिखाई गई। इससे इण्डिया गठबन्धन के नेताओं और कार्यकर्ताओं ने एक बार फिर से पूर्व की भांति ईवीएम मशीनों में गड़बड़ होने की सम्भावना जताना शुरू कर दी। इतना ही नहीं, इससे देश के हर गाँव, कस्बे और शहर में लोग अपने अपने विचार के गठबन्धन के पक्ष में बहस करते दिखाई दिए, पर कहते हैं न कि, क्रिकेट और राजनीति के खेल का कोई पता नहीं चलता कि, कब क्या हो जाए ? कभी भी बाजी पलट सकती है। बस सारी बात धक्का लगने पर निर्भर है। चुनाव के परिणाम जैसे ही शाम होते -होते घोषित हुए तो, वे सच में चौंकाने वाले आए। इन परिणामों के बाद सभी की बहस का विषय भी बदल गया। इसी के साथ ईवीएम मशीनों में गड़बड़ी का मामला भी ठंडे बस्ते में चला गया। महत्वपूर्ण अगर कुछ हुआ तो, वह यह था कि भाजपा को इतना नुकसान यदि हुआ तो, क्यों हुआ ? और इतनी एंटी इनकम्बैंसी के चलते भी इण्डिया गठबन्धन (कांग्रेस) पूर्ण बहुमत के आँकड़े को क्यों नहीं छू सका ? इस बहस में प्रधानमंत्री मोदी की लोकप्रियता और राहुल गांधी की कड़ी मेहनत के नतीजों पर भी चर्चा शुरू हुई। इण्डिया गठबन्धन का दावा है कि, इस चुनाव में प्रधानमंत्री की लोकप्रियता कम हुई है तो, इण्डिया गठबन्धन से राहुल गांधी की मेहनत रंग लाई है। इस पूरी लड़ाई में ममता, अखिलेश, नीतीश और नायडू बड़े चेहरे के रूप में उभर कर सामने आए।
खैर, यह तो राजनीतिक गलियारों की अपनी चकाचौंध है। हम यदि निष्पक्ष और राष्ट्रीय स्तर पर इस चुनाव की समीक्षा करें तो, कहना न होगा कि इस चुनाव में राष्ट्रीय दलों का वजूद घटा है और क्षेत्रीय का बढ़ा है। इसका कारण भी स्पष्ट दिखाई दे रहा है कि, जनता ने जाति और धर्म को आधार बनाकर अपने-अपने मतों का प्रयोग किया। इण्डिया गठबन्धन ने जातिगत जनगणना और संविधान के खतरे में पड़ने के मुद्दे को लोकतन्त्र की रक्षा के लिए प्रमुखता से उठाया तो, राजग ने धार्मिक पृष्ठभूमि और राष्ट्रीयता पर ज्यादा जोर दिया। ऐसे में जनता ने अपने सरोकारों को ध्यान में रखते हुए इण्डिया गठबन्धन के आरक्षण बचाने के मुद्दे को अधिक महत्व दिया। शायद, इससे उप्र जैसे राज्य में इण्डिया गठबंधन की झोली में अच्छा-खासा बहुमत आ गया। कई राज्यों में कुछ राजनीतिक दलों के व्यक्तिगत वजूद ने अपने-अपने क्षेत्रीय वैचारिक मुद्दों पर साख की लड़ाई के चलते बढ़त हासिल की, जो दोनों घटकों के पक्ष में लगभग बराबर-बराबर जाती दिखाई दी।
इस पूरी प्रक्रिया में विचार और चिन्तन का यह विषय है कि, राष्ट्रीय दलों ने अपना अस्तित्व क्यों और कैसे कमजोर किया ? क्योंकि, क्षेत्रीय दलों की कामयाबी से कहीं ज्यादा राष्ट्रहित में राष्ट्रीय दलों के वजूद का कायम रहना बहुत जरूरी है। राष्ट्रीय दलों का पक्ष- विपक्ष में सशक्त होना वैश्विक राजनीतिक घटनाक्रम के लिए अत्यावशक है। यह बात जरूर है कि, क्षेत्रीय दल हमारी क्षेत्रीय समस्याओं के हिसाब से अधिक फायदेमंद होंगे, पर अंतराष्ट्रीय धरातल पर जितनी महत्वपूर्ण भूमिका राष्ट्रीय दलों द्वारा निभाई जाएगी, उतनी क्षेत्रीय नहीं निभा पाएंगे। क्षेत्रीय दलों के सक्रिय होने से राष्ट्र की आर्थिक सहायता का भी समान विभाजन नहीं हो पाएगा, जिससे सम्पूर्ण राष्ट्र का समग्र विकास भी तो नहीं हो पाएगा। इससे भ्रष्टाचार और अन्य सामाजिक विघटनों को भी ताकत मिलने की अधिक सम्भावना रहती है, क्योंकि कुछ राज्य संतुष्ट और कुछ असंतुष्ट होंगे। इससे तो असंतुलन फैलेगा ही फैलेगा।
सवाल यह भी खड़ा होता है कि, राष्ट्रीय दलों को आगे बढ़ने से किसने रोका ? वे करें कुछ ऐसा कि जनता उनसे ज्यादा से ज्यादा जुड़े। राष्ट्रीय दलों की लोकप्रियता के घटने के पीछे के कारणों पर जब समाज में चर्चा- परिचर्चा की जाए तो निष्कर्ष यह निकलता है कि, राष्ट्रीय दलों में अपनी ताकतों पर जरूरत से ज्यादा अहम आ गया है, जिसके चलते वे अपने दल के आखिरी कार्यकर्ता तक अपना तालमेल नहीं बिठा पा रहे हैं, जिससे युवा पीढ़ी तथा दल के पुराने कार्यकर्ताओं में मनमुटाव होने के चलते राष्ट्रीय दलों को राष्ट्रव्यापी संगठन होने के बाद भी अन्दर घात से हर बार खासा नुकसान होता है। ये गुटबाजी और वजूद की कलह क्षेत्रीय दलों में भी है, पर राष्ट्रीय दलों को इस पर विशेष ध्यान देने की जरूरत है, क्योंकि आज जहां देश के सामने जातिवाद, धर्मवाद, भ्रष्टाचार, बेरोजगारी, शिक्षा, स्वास्थ्य, न्याय, नीति और अराजकता के साथ-साथ नशा माफियाओं से निपटने की आंतरिक चुनौतियाँ हैं, वहीं अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर मुकाबला करने की एक विकट चुनौती भी है। इन सभी से क्षेत्रीय घटकों के चलते नहीं निपटा जा सकता। इन मुद्दों से निपटने के लिए कड़े फैसले लेने पड़ते हैं, और वह तभी सम्भव होगा जब राष्ट्रीय दल पूर्ण बहुमत से सरकार बनाकर संसद में बैठेगा।
राष्ट्रीय दलों को नुकसान उनके वैचारिक अनुषांगिक संगठनों की अनदेखी से भी हो रहा है। बड़ी जीत के लिए अपनी मण्डली का बड़ा होना भी जरूरी है और उसके लिए सभी को जोड़ कर रखना मजबूरी है, परंतु यहाँ देखा जा रहा है कि, कांग्रेस का वैचारिक धरातल पर अनुषांगिक संगठन ‘सेवादल’ आज इस महत्व का नहीं रह गया है, जितना वह पहले होता था। ठीक इसी तर्ज पर भारतीय जनता पार्टी में भी वैचारिक संगठन ‘राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ’ के बारे में भी कुछ ऐसा ही धीरे-धीरे होने लगा है। यह बात भी सच है कि, जब ये राष्ट्रीय दल अपने इन वैचारिक संगठनों को अधिक महत्व देने लगेंगे तो इनके अपने दल के कार्यकर्ता नाराज होंगे और यह भी सच है कि यदि ये वैचारिक संगठनों को तवज्जो न देंगे तो तब भी पिटेंगे। ऐसे में फायदा हमेशा क्षेत्रीय दलों को ही होगा, क्योंकि यह तो सत्य है कि ये संगठन सामाजिक और सांस्कृतिक होते हैं एवं ये राष्ट्रीय दलों के जिस धड़े के साथ खड़े होते हैं, उसके सिवा दूसरे को मतदान नहीं करते। देखा यह भी गया है कि, इन संगठनों के अलावा हर राजनीतिक संगठन के अपने दल के आम कार्यकर्ता को भी उस दल के सत्ता पर बैठने के बाद कोई खास महत्व नहीं मिलता, जिससे वह रूष्ट हो कर दल बदल लेता है और उस दल को नुकसान होता है। यह इसलिए होता है, क्योंकि चुनावों में मेहनत तो कोई और ही कार्यकर्ता करते हैं और सत्ता में आने पर नेताओं को कुछ खास लोग कब्जे में कर लेते हैं तथा अपना उल्लू सीधा कर लेते हैं, पर ५ साल बाद उस दल और नेता को आम कार्यकर्ता के आक्रोश का भागी बना देते हैं। संगठन की अपनी एक कार्यशैली होती है और अपनी ताकत होती है। जब वह राजनीतिक दल सत्ता में आने पर अहम में आकर इन वैचारिक संगठनों की अनदेखी करता है तो मुँह की खानी पड़ती है। नेता समय के साथ समाप्त हो जाता है, पर संगठन और दल निरंतर रहते हैं। इसलिए व्यक्ति से बड़ा संगठन होता है, इस बात को सभी राष्ट्रीय दलों को याद रखना चाहिए। दूसरा अपने दल स्तर पर भी नए और पुराने कार्यकर्ताओं की बराबर पूछ-पहचान सभी दलों को रखनी चाहिए, अन्यथा नुकसान झेलना होगा। इन मुद्दों को ध्यान में रखते हुए किसी की अनदेखी किए बिना जो दल सभी में तालमेल बिठाने और सत्ता में आने पर सभी को महत्व देने में कामयाब होगा, भविष्य में वही बचेगा। ऐसा नहीं है कि किसी भी राजनीतिक दल का नीचे तक कोई संगठनात्मक ढांचा नहीं है। है भी और काम भी करता है। समस्या गुटबाजी और अनदेखी की है। इसलिए, .आज हर राष्ट्रीय राजनीतिक दल को अपने वैचारिक, सामाजिक और राजनीतिक अनुषांगिक संगठनों के महत्व को समझना होगा और सत्ता में आने पर महत्व देना होगा, तभी ये संगठन चुनावों के समय और उसके आगे-पीछे भी अपनी विचारधारा के राजनीतिक संगठन का प्रचार-प्रसार जनता में करेंगे।
आज की राजनीति में तो मतदाता भी नेता से व्यक्तिगत बातचीत और पहचान की अपेक्षा करता है, जो भविष्य में राजनेताओं को करना भी होगा। इस प्रकार कहा यही जा सकता है कि, अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भारत का लोहा मनवाने के लिए राष्ट्रीय दलों को महत्व देना होगा और उन दलों को अपने पुराने वैचारिक दलों को विशेष महत्व संगठन के साथ देना होगा। यही राष्ट्रहित और समाजहित में सर्वोपरि है। अन्यथा हम छोटे-छोटे राजनीतिक घटक दलों में बंट कर देश के सर्वांगीण विकास और अंतर्राष्ट्रीय राजनीतिक पैंतरे को कमजोर कर बैठेंगे।