दीप्ति खरे
मंडला (मध्यप्रदेश)
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‘रोटी’ शब्द खुद में कमाल,
काम इसका बेमिसाल
बनती है तपती आग में,
पर शांत करे क्षुधा की ज्वाल।
रूप है इसका गोल-गोल,
आंका न जाए इसका मोल
कभी मोटी कभी पतली बनती,
भारत की थाली में सजती।
बस भूख का रिश्ता समझे रोटी,
घी में तर कभी सूखी रोटी
सुखी वही है इस दुनिया में,
जिसे मिले ‘दो जून की रोटी।’
सहज सुलभ है जिनको रोटी,
मोल वो इसका समझ न पाते।
कीमत उनसे पूछो रोटी की,
जो दिनभर मेहनत कर इसे जुटाते॥
