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लड़ाने वाले तो लड़ा गए

हेमराज ठाकुर
मंडी (हिमाचल प्रदेश)
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नफरतों की आंधियाँ थम जाने दो,
आ जाने दो प्रेम की शीतल बयार
बदल जाने दो अब आबो-हवा को,
छट जाने दो युद्धीय मेघों को यार।

रक्तिम रंग से रंजित धारा को,
कर लेने दो जीवन का श्रृंगार
मौत का खेल बहुतेरा हो लिया,
उग जाने दो अब पावन प्यार।

लड़ाने वाले तो लड़ा गए तुम्हें,
मकसद ही जिनका लड़ाना था
तबाही तो तुम्हारी करा गए भाई,
उन्हें तो उल्लू सीधा करवाना था।

दो घरों के झगड़े में ओ बंधु,
भला पड़ता ही अब कौन है ?
खाली बातें ही करते हैं लोग,
पड़ोसी भी रहते बस मौन है।

हाँ! निज घर की अस्मत की खातिर,
लड़ना-भिड़ना भी तेरी मजबूरी थी
पर आग लगाने वाले मद मित्रों की,
कुटिल चालें भी भांपनी जरूरी थी।

अपने ही घर को फूंक के पगले,
आग सेंकना तो निपट नादानी है।
अपनी ऐंठ में निर्दोष जनता को,
बेवजह मरवाना भी बेईमानी है।

कोसेगी कई पीढ़ियाँ तुमको,क्या;
निर्मित ढांचा ढहाना समझदारी थी ?
पुरखों की गढ़ी हर नींव उखाड़ डाली,
जनता भी बेवजह ही क्यों मारी थी ?

सनक ही सनक में दो दिग्गजों ने,
क्यों लड़ी खूंखार खूनी लड़ाई थी ?
जमाना तो पूछना छोड़ेगा नहीं जी,
आखिर ऐसी भी क्या नौबत आई थी ?

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