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लाल गुलाब की अभिलाषा

मंजू अशोक राजाभोज
भंडारा (महाराष्ट्र)
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लाल गुलाब से एक दिन मैं यूँ ही पूछ बैठी,
आखिर क्या हमसे है रहती, तुम्हारी अभिलाषा ?

वह मुझसे कहने लगा,-
बहुत दिनों से थी, मेरे मन में यह एक आशा
कोई आकर पूछे मुझसे,
आज समझाता हूँ मैं तुम्हें, अपनी मूक भाषा।
हाँ, अपनी मूक भाषा…
जब कोई मुझे ईश्वर के शीश है चढ़ाता,
प्रभु के चरणों में, मैं भी तुम संग हूँ शीश झुकाता।

जब मैं किसी महापुरुष की, प्रतिमा पर हूँ चढ़ाया जाता,
मन ही मन हूँ मैं गर्वित होता और मन ही मन मैं मुस्कुराता
जब कोई देशभक्त के सम्मान के लिए मुझे है तोड़ता,
गर्व से मेरा शीश ऊपर है उठ जाता
जब कोई अपने प्रेमी-प्रियतम को है मुझे देता,
मन ही मन मैं हर्षित होता और उन्हें ढ़ेरों दुआएँ हूँ देता।

जब कोई मुझसे नन्हें-मुन्नों के,
जन्मदिवस पर है सजावट करता
उनकी खुशियाँ देख मैं भी उस पल,
उनके संग हूँ खिलखिलाता।
तभी गुलाब कहते-कहते मायूस होने लगा।

मैंने उसकी मायूसी का, जब कारण था पूछा,
वह मुझसे फिर कहने लगा,-
कहते-कहते अब, वह रोने लगा
मैं उस पल बहुत ही दु:खी हो जाता,
यह देख कर एक व्यंग्य लिए हँसी मैं हूँ हँसता
जब कोई किसी की अंतिम बिदाई पर,
मुझसे उसे पूरा ढ़क देता
और मन ही मन यह खुद से कहता
मैंने जाने वाले को अंतिम बिदाई,
गुलाबों से भर-भर कर दी है
लेकिन क्या कभी किसी ने यह है सोचा!
अब उसके लिए उन गुलाबों का, क्या है मोल रह जाता!
जब वह अपनी आँखों से, न यह सब देख है पाता।
न ही तुम्हारी अनुभूति को वह है महसूस कर सकता।

‘मंजू’ की लेखनी कहती सबसे-
अपनों के जीवन के अनमोल पलों को,
अनगिनत लाल गुलाब से सजाना तुम,
चाहे अपनों की अंतिम बिदाई के क्षण पर।
अपनी श्रद्धा का एक लाल गुलाब ही चढ़ाना तुम,
बस एक लाल गुलाब ही चढ़ाना तुम॥