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लिखो गौरवगाथा

डॉ. विद्या ‘सौम्य’
प्रयागराज (उत्तर प्रदेश)
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यह देह अब…
सौंदर्य का प्रतिमान नहीं,
तिर्यक नयन, नसरीन बदन
गजगामिनी, मनमोहनी, रूपसी,
तू हृदय बसी…
छोड़ो ये सब, उपमाएं हुई पुरानी,
तुम हो आद्यंत तो…
लिखो अल्फ़ाज़ नए जमाने,
लिखो! वर्तमान की कर्मरत गाथा
गढ़ो नारी-सौंदर्य की नई परिभाषा,
जो स्वत:…
तराशती है आत्मा को, चेतना को,
प्रखर करती है,अपनी बुद्धि को
प्रशस्त करती है,नए मार्ग…
बंधन की बेड़ियों को तोड़ती,
उन्मुक्त…
परिंदे-सा नाप लेती है,
सारा आकाश…
रूप की उज्वलता से ओझल,
उसका चित्त, लग जाता है
जीवनपथ को संवारने में।

बनकर स्वामिनी…
जल, थल, नभ से कर लेती है,
स्वत: संवाद…
नदियों की धारा में, होकर लीन,
सागर की लहरों से कर,
अठखेलियाँ…
हो जाती है भव पार,
किनारों को छूती हुई…
कर लेती है दुनिया की फतह,
उड़ती है हवाओं के संग-संग
लड़ती है, फिजाओं से बन कहर,
गुणों को चन्दन की तरह
उद्दीप्त कर, घर, आँगन, परिवार,
समाज, राष्ट्र में भर देती है,
स्वाभिमान…।
हाँ कवि,
लिखो ऐसी ही नारी की
गौरव गाथा…॥