डॉ. कुमारी कुन्दन
पटना(बिहार)
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माँ और हम (मातृ दिवस विशेष)…
माँ बनकर, माँ को समझा,
माँ जैसा ना जग में कोई
गर्भ-नाल से जुड़ा ये रिश्ता
और है भला कहाँ कोई।
पहला कम्पन और करवट का,
पहला अहसास जब पाई होगी
किसी के आने की आहट से,
तेरी दुनिया अचरजभरी होगी।
पर सृष्टि का है ढंग निराला,
ऊपर वाले की सब माया है
मौत के मुँह से बच निकली,
तब कहीं, माँ का दर्जा पाया है।
वट वृक्ष-सी खड़ी माँ तुम,
पालन-पोषण करती होगी
सुख-सपने सबको तजकर,
मुझ पर वारा करती होगी।
बच्चों का जीवन रौशन हो,
दीए-सा जला करती होगी।
देखकर दु:ख-व्यथा उसकी,
जाने कितनी रात जगी होगी।
देखकर दुनिया की बेरुखी,
जब खुद को तन्हा पाती हूँ
नियति का है खेल निराला,
फिर दिल को समझाती हूँ।
ओ माँ, आज जब खुद मैं,
माँ बनकर रिश्ते को जीती हूँ
त्याग और बलिदान को तेरे,
पल-पल याद किया करती हूँ।
समय चक्र यूँ ही है चलता,
हर माँ की करुण कहानी।
जब मन का आँगन हो सूना,
तब लाना ना आँख में पानी॥