पूनम चतुर्वेदी
लखनऊ (उत्तरप्रदेश)
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भारत जैसे विशाल और विविधतापूर्ण देश में ‘हरियाली’ और ‘विकास’ को लेकर लंबे समय से बहस चलती रही है। विकास का मतलब होता है आर्थिक तरक्की, आधारभूत संरचना का निर्माण, रोज़गार का सृजन और जीवन की गुणवत्ता में सुधार;वहीं हरियाली का तात्पर्य है–प्रकृति का संरक्षण, वन्य जीवन की सुरक्षा, जलवायु संतुलन और पर्यावरणीय स्थिरता। कई बार यह धारणा बन गई है कि विकास का रास्ता पर्यावरणीय विनाश से होकर जाता है। जैसे- शहर फैलते हैं, पेड़ कटते हैं, जंगल सिकुड़ते हैं, और कारखानों, सड़कों व बांधों आदि के लिए हजारों एकड़ हरित भूमि का दोहन होता है। इतिहास गवाह है, कि भारत के औद्योगिक विकास के विभिन्न पड़ावों पर प्रकृति की बलि दी गई है-चाहे वह झारखंड में कोयला खनन हो या अरुणाचल में जल विद्युत परियोजनाएं, अथवा छत्तीसगढ़ व ओडिशा के आदिवासी क्षेत्रों में लौह अयस्क की खुदाई। ये तमाम उदाहरण साबित करते हैं, कि जब भी आर्थिक विकास की परियोजनाएं शुरू होती हैं, तो वनस्पति, जैव विविधता और पर्यावरणीय संतुलन को नुकसान पहुंचता है, परंतु यह स्थिति अनिवार्य नहीं है। यह केवल गलत नीतियों, स्वार्थपूर्ण दृष्टिकोण और पर्यावरणीय चेतना की कमी के कारण हुआ है। यदि विकास की प्रक्रिया का एक पर्यावरण-मित्र दृष्टिकोण के साथ अभिकल्पन (डिजाइन) किया जाए, तो यह हरियाली के साथ तालमेल बिठाकर आगे बढ़ सकता है। उदाहरण स्वरूप-यदि कोई राज-मार्ग बने और हर २ किलोमीटर पर सड़क के किनारे हरित पट्टी लगाई जाए, यदि खनन से पहले और बाद में वन क्षेत्र का पुनः निर्माण किया जाए, यदि फैक्ट्रियों में प्रदूषण नियंत्रण संयंत्र लगाए जाएं और नवीकरणीय ऊर्जा को प्राथमिकता दी जाए-तो विकास, पर्यावरण का शत्रु नहीं, उसका सहयोगी बन सकता है। अतः सबसे पहला और बड़ा सवाल यही है, कि क्या हम विकास की परिभाषा को महज़ जीडीपी वृद्धि से आगे बढ़ाकर ‘सतत समावेशी विकास’ (सस्टेनेबल इंक्लूसिव डेवलपमेंट) के रूप में स्वीकार कर सकते हैं ? यदि हाँ, तो हरियाली और विकास दोनों साथ-साथ चल सकते हैं, और भारत इस दिशा में नई भूमिका निभा सकता है।
भारतीय संविधान का अनुच्छेद ४८ए राज्य को यह निर्देश देता है कि वह पर्यावरण और वनस्पतियों के संरक्षण के लिए नीति बनाए और उन्हें लागू करे। अनुच्छेद ५१ए(जी) नागरिकों को यह कर्तव्य देता है कि वे प्राकृतिक पर्यावरण की रक्षा करें। इसके बावजूद आज भारत विश्व के उन शीर्ष ५ देशों में शामिल है, जहाँ वायु प्रदूषण सबसे अधिक है, वनों की कटाई तेजी से हो रही है, और जल स्रोतों का दोहन खतरनाक स्तर तक पहुंच चुका है। ऐसे में हरियाली और विकास को संतुलित करने की चुनौती और अधिक जटिल हो जाती है। एक ओर केंद्र और राज्य सरकारें ‘मेक इन इंडिया’, ‘स्मार्ट सिटी’, ‘औद्योगिक गलियारा’, ‘विकासशील राजमार्ग’ व ‘कोयला खनन’ जैसे कार्यक्रमों पर बल देती हैं, तो दूसरी ओर देशभर में पर्यावरणीय आंदोलनकारियों, ग्रामीणों, आदिवासियों और पर्यावरणविदों की यह माँग होती है कि इन योजनाओं में पर्यावरणीय मूल्यांकन को गंभीरता से लिया जाए, एवं हरियाली की क्षति की भरपाई सुनिश्चित की जाए। यहाँ एक संतुलित दृष्टिकोण अपनाना आवश्यक हो जाता है।
भारत में ‘हरित विकास’ की अवधारणा अब तेजी से आगे बढ़ रही है। उदाहरणस्वरूप-लद्दाख में सौर ऊर्जा से पूरी बस्ती चलाने की पहल, केरल में हरित भवनों का निर्माण, दिल्ली-एनसीआर में इलेक्ट्रिक वाहनों को बढ़ावा देना और महाराष्ट्र में ‘वन महोत्सव’ के तहत लाखों पेड़ लगाना-यह सब संकेत देते हैं कि भारत हरियाली के साथ विकास की राह पर बढ़ सकता है। चुनौतियाँ फिर भी कई हैं, जैसे-भूमि अधिग्रहण में पारदर्शिता की कमी, पर्यावरणीय स्वीकृति में भ्रष्टाचार, उद्योगों की ज़िम्मेदारी से बचने की प्रवृत्ति और सरकारी योजनाओं का पर्यावरणीय दृष्टिकोण से निर्धारण न होना। यदि नीति-निर्माता, उद्योगपति, प्रशासनिक अधिकारी और नागरिक इस दिशा में ईमानदारी से सहयोग करें, तो हरियाली और विकास एक- दूसरे के पूरक बन सकते हैं, विरोधी नहीं।
दुनिया के कई देश आज इस बात को सिद्ध कर चुके हैं कि हरियाली और विकास एक-दूसरे के विरोधी नहीं, बल्कि एक-दूसरे के सहायक बन सकते हैं। उदाहरण के लिए-स्वीडन, नॉर्वे और डेनमार्क ने अपने औद्योगिक विकास को अक्षय ऊर्जा, कचरा प्रबंधन और सार्वजनिक परिवहन के हरित प्रारूप के साथ जोड़ा है। स्वीडन की राजधानी स्टॉकहोम में ८० फीसदी से अधिक ऊर्जा सौर और बायोमास जैसे स्वच्छ स्रोतों से आती है। वहाँ की सरकार ने ‘ग्रीन टैक्स’ और ‘कार्बन टैक्स’ जैसी नीतियाँ अपनाई हैं, जिससे कम्पनियाँ पर्यावरण-मित्र तकनीकों की ओर प्रवृत्त हुई हैं। सिंगापुर जैसे छोटे देश ने सीमित संसाधनों के बावजूद वर्टिकल गार्डनिंग, वर्षा जल संचयन और स्मार्ट सीवेज ट्रीटमेंट के माध्यम से हरियाली और विकास दोनों को साधा है। भारत के लिए ये अनुकरणीय हैं। यदि हम विकास के लक्ष्य को केवल आर्थिक आँकड़ों से नहीं, बल्कि ‘पर्यावरणीय संतुलन’ और ‘स्थायी जीवन शैली’ के संदर्भ में देखें, तो हम नए भारत की कल्पना कर सकते हैं, जो तेज़ी से विकसित भी हो और हरित भी।
हरियाली और विकास को साथ लेकर चलने के लिए सबसे पहली आवश्यकता है- नीति निर्माण में समन्वय और संवेदनशीलता। सरकार को चाहिए कि किसी भी विकास परियोजना को स्वीकृति देने से पहले गहन पर्यावरणीय मूल्यांकन हो। ‘वन अधिकार अधिनियम’ और ‘पर्यावरणीय संरक्षण अधिनियम’ जैसे कानूनों को मजबूती से लागू किया जाए। स्थानीय समुदायों, विशेष रूप से आदिवासियों को निर्णय-निर्माण प्रक्रिया में शामिल किया जाए। दूसरे, शहरीकरण को हरित दिशा दी जानी चाहिए। समाधान यह है कि हर नगर में ‘ग्रीन ज़ोन’ सुनिश्चित किया जाए, साइकिल ट्रैक्स बनाए जाएं, सार्वजनिक परिवहन को बढ़ावा दिया जाए, और इमारतें ‘ग्रीन बिल्डिंग कोड’ के अनुसार बनें। तीसरे, जन-जागरूकता का स्तर ऊँचा उठाना होगा। हरियाली केवल सरकारी प्रयासों से नहीं आएगी, उसमें हर नागरिक की भागीदारी आवश्यक है।
अंततः हमें यह समझना होगा कि प्रकृति के बिना विकास एक खोखला सपना है। जिस धरती की हरियाली को काटकर चमचमाते शहर बनाते हैं, वही धरती यदि गर्म हो जाए, वर्षा अनियमित हो जाए, जलस्तर गिर जाए, तो वह विकास कुछ वर्षों में ही विनाश का कारण बन जाता है। अतः, आज की सबसे बड़ी आवश्यकता यह है कि विकास के हर कदम पर हरियाली का आशीर्वाद लिया जाए। भारत जैसे विशाल लोकतंत्र के पास यह अवसर है, कि वह विश्व को यह दिखा सके कि विकास और पर्यावरण को साथ लेकर चलना केवल नारा नहीं, एक यथार्थ विकल्प है।