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शक्ति की साधना, धर्म-कर्म और जीत का पर्व

ललित गर्ग

दिल्ली
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विजयादशमी विशेष….

भारतीय त्योहार एवं मेले जहां संस्कृति के अभिन्न अंग हैं, वहीं प्रेरणाओं से भी जुडे़ हैं। एक ऐसा ही अनूठा पर्व है दशहरा। भारत के लगभग सभी भागों में दशहरे का पर्व एक महान् उत्सव के रूप में मनाया जाता है, जिसे ‘विजयादशमी’ भी कहा जाता है। यह पर्व बुराइयों से संघर्ष का प्रतीक है, यह देश की सांस्कृतिक चेतना एवं राष्ट्रीयता को नवऊर्जा देने का भी पर्व है। आज भी अंधेरों से संघर्ष करने के लिए इस प्रेरक एवं प्रेरणादायी पर्व की संस्कृति को जीवंत बनाने की जरूरत है। बहुत कठिन है यह बुराइयों से संघर्ष करने का सफर, बहुत कठिन है तेजस्विता की यह साधना। आखिर कैसे संघर्ष करें घर में छिपी बुराइयों से, जब हर घर आँगन में रावण-ही-रावण पैदा हो रहे हों, चाहे भ्रष्टाचार के रूप में हों, चाहे राजनीतिक अपराधीकरण के रूप में, चाहे साम्प्रदायिक विद्वेष फैलाने वालों के रूप में, चाहे राष्ट्र को तोड़ने वाले आतंकवाद के रूप में, चाहे शिक्षा, चिकित्सा एवं न्याय को व्यापार बनाने वालों के रूप में हों। यह उत्सव प्रतिवर्ष मनाते हुए जहां शक्ति की कामना की जाती है, वहीं राष्ट्रीय महत्व के मुद्दों की ओर ध्यान खींचा जाता है। इससे नयी प्रेरणा, नई ताजगी, नई शक्ति एवं नई दिशाएँ मिलती हैं।
दशहरा भारत का ‘राष्ट्रीय त्योहार’ है। रामलीला में जगह-जगह रावण वध का प्रदर्शन होता है। क्षत्रियों के यहाँ शस्त्र की पूजा होती है। इस दिन नीलकंठ का दर्शन बहुत शुभ माना जाता है। यह
भगवान श्रीराम शक्ति की देवी माँ दुर्गा के भक्त थे, उन्होंने युद्ध के दौरान पहले नौ दिनों तक माँ दुर्गा की पूजा की। इसके बाद भाई लक्ष्मण, भक्त हनुमान, और बंदरों की सेना के साथ एक बड़ा युद्ध लड़कर दसवें दिन दुष्ट रावण का वध किया एवं सीता को छुड़ाया। इसलिए विजयादशमी बुराई पर अच्छाई, असत्य पर सत्य और अंधकार पर प्रकाश का एक बहुत ही प्रेरणा का पर्व है।
दशहरा पर्व कृषि उत्सव के रूप में भी मनाया जाता है। भारत में जब किसान अपने खेत में सुनहरी फसल उगाकर अनाज रूपी संपत्ति घर लाता है तो उसके उल्लास और उमंग का पारावार नहीं रहता। महाराष्ट्र में इस अवसर पर ‘सिलंगण’ के नाम से सामाजिक महोत्सव के रूप में भी इसको मनाया जाता है।
इस उत्सव का सम्बंध नवरात्र से भी है, क्योंकि इसमें महिषासुर के विरोध में देवी के साहसपूर्ण कृत्यों का भी उल्लेख होता है।
दशहरा शक्ति की साधना, कर्म एवं पूजा का भी पर्व है। इसी दिन लोग नया कार्य प्रारम्भ करते हैं, शस्त्र-पूजा की जाती है। प्राचीन काल में राजा लोग इस दिन विजय की प्रार्थना कर रण-यात्रा के लिए प्रस्थान करते थे। भगवान श्रीराम की विजय के रूप में मनाया जाए अथवा दुर्गा पूजा के रूप में, दोनों ही रूपों में यह शक्ति-पूजा का पर्व है। यह पर्व १० प्रकार के पापों- काम, क्रोध, लोभ, मोह मद, मत्सर, अहंकार, आलस्य, हिंसा और चोरी के परित्याग की सद्प्रेरणा प्रदान करता है। आज दशहरा का पर्व मनाते हुए सबसे बड़ी जरूरत भीतर के रावण को जलाने की है, क्योंकि ईमानदार प्रयत्नों का सफर कैसे आगे बढ़े, जब शुरूआत में ही लगने लगे कि जो काम मैं अब तक नहीं कर सका, भला दूसरों को भी हम कैसे करने दें ? कितना बौना चिन्तन है आदमी के मन का कि मैं तो बुरा हूँ ही, पर दूसरा भी कोई अच्छा न बने। इस रावण को जलाना जरूरी है।
यह देश की सांस्कृतिक एकता और अखण्डता को जोड़ने का पर्व भी है। इस वर्ष विजयादशमी पर्व इसलिए विशेष है, क्योंकि पर्व की सकारात्मक क्रांतिकारी ऊर्जा से न केवल राष्ट्र में सक्रिय नकारात्मक एवं अराष्ट्रीय ताकतों को सख्त संदेश दिया जाना है, बल्कि पड़ोसी पाकिस्तान-चीन आदि देशों की कुचेष्टाओं के लिए ललकारा भी जाना है। आजादी के अमृत काल में राष्ट्र को शताब्दी वर्ष के लिए सशक्त किया जाना है।
पिछले आठ दशकों में लगातार हिन्दू-संस्कृति को कमजोर करने की राजनीतिक चालें होती रही है। दरअसल हिन्दू धर्म नहीं, विचार है, संस्कृति है। हिन्दू राष्ट्र होने का अर्थ धर्म से न होकर हिन्दू संस्कृति के सर्वग्राही भाव से है। हिन्दू संस्कृति उदारता का अन्तर्निहित शंखनाद है क्योंकि पूरे विश्व में यह अकेली संस्कृति है जो बहुविचारवाद यानी सभी धर्म, विचार एवं संस्कृतियों को स्वयं में समेटे हैं। हिन्दू संस्कृति की यही महानता और विशेषता रही है कि प्रिय सत्य की वकालत तो करती है मगर इसके कटु होने पर निषेध करने को भी कहती है। यह हिन्दू संस्कृति अहिंसा की संस्कृति है पर जरूरत पड़ने पर शस्त्र उठाकर स्व-रक्षा की बात भी कहती है। इसी विचारधारा को बल देने का सशक्त माध्यम है विजयादशमी पर्व। मराठा रत्न शिवाजी ने भी औरंगजेब के विरुद्ध इसी दिन प्रस्थान करके हिन्दू धर्म का रक्षण किया था। इस गंगा दशहरे पर स्वयं को पापों को धोने के साथ-साथ जरूरत जन-जन के मनों को भी मांजने की है। जरूरत उन अंधेरी गलियों को बुहारने की है, ताकि आने वाली पीढ़ी अपने लक्ष्य से न भटक जाए। जरूरत है सत्य की तलाश शुरू करने की, जहां न तर्क हो, मनुष्य-मनुष्य को जोड़े। दशहरा एक चुनौती बनना चाहिए उन लोगों के लिए, जो अकर्मण्य, आलसी, सत्वहीन बनकर सिर्फ सफलता की ऊँचाइयों के सपने देखते हैं, पर दुर्बलताओं को मिटाकर नयी जीवन-शैली की शुरूआत का संकल्प नहीं स्वीकारते। दशहरे का उत्सव धर्म की रक्षा, शक्ति का प्रदर्शन और शक्ति के समन्वय का प्रतीक है, नकारात्मक शक्तियों के ऊपर सकारात्मक शक्तियों की जीत का प्रतीक है।