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संघर्ष लड़कियों का…

बबिता कुमावत
सीकर (राजस्थान)
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चुप्पियों की गठरी बांधती है,
सपनों की पोटली कंधे रखती है।

हर सुबह वह निकल पड़ती है,
नजरें झुकाती है, हौसले ऊँचे रखती है।

घर की देहरी से दुनिया तक,
टोकने की उसके लम्बी कतार होती है।

कभी ‘यह मत करो’ कभी ‘वह मत करो’
दुनिया कहती है, कभी ‘इतना काफी है’ कह कर रोकती है।

हर कदम पर उसके सवालों की मार होती है,
कभी किताबों में छिपा भविष्य ढूँढती है।

कभी रसोई की आग में वर्तमान खोजती है,
दोनों के बीच संतुलन ढूँढती नजर आती है।

वह अपनी पहचान खुद बनाती है,
आँचल में वह आँसू रखती है।

फिर भी आँखों में जिद होती है,
होठों पर मौन की मुस्कान रखती है।
थकती है, टूटती है, फिर भी अडिग रहती है,
उसके पंखों पर समाज की धूल होती है।

फिर भी उसकी उड़ान की इच्छा अटल होती है,
वह जानती है संघर्ष ही सबल बनाता है।

एक दिन लड़की इतिहास की स्याही बनती है,
अपने संघर्ष से नई पीढ़ी को राह दिखाती है॥