डॉ. मीना श्रीवास्तव
ठाणे (महाराष्ट्र)
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पंचकन्या (भाग ५)…
प्रात:स्मरण
‘अहल्या द्रौपदी सीता तारा मंदोदरी तथा।
पंचकन्या ना स्मरेन्नित्यं महापातकनाशनम्॥’
आइए, इस भाग में हम और अधिक जानकारी प्राप्त करें इस श्लोक की चतुर्थ पंचकन्या ‘तारा’ के बारे में। बाली की मरणोन्मुख अवस्था जानते ही तारा रणभूमि पर जाती है और सामान्य स्त्री के समान करुण विलाप करती है। राम ने कपट से बाली को बाण मारा है, यह जानकर वह श्रीराम तथा सुग्रीव, दोनों की ही कठोर शब्दों में निर्भत्सना करती है। कुछ सन्दर्भों के अनुसार तारा राम को पत्नी वियोग का शाप तक दे देती है। बाली को वीरगति प्राप्त होने के पश्चात् अपने पति के निधन से शोकमग्न हुई तारा सती जाने को उद्युक्त होती है, परन्तु श्रीराम दर्शनशास्त्र का आधार लेकर उसे समझाते हैं कि बाली ने अपने भाई के साथ अन्याय किया, उसे निर्वासित किया। यहीं नहीं, उसकी पत्नी रुमा का अपहरण किया और उसे बंदी बनाकर रखा। इस पाप का दंड बाली को मिलना सर्वथा उचित ही था। श्रीराम बाली वध के उपरान्त सुग्रीव को आज्ञा देते हैं, “हे सुग्रीव, अब अंगद को युवराज घोषित कर उसका युवराज्याभिषेक करो, साथ ही महारानी तारा को राजमाता का पद देकर सम्मानित करना और उनकी सलाह के अनुसार ही राज्य का कारोबार चलाना। तारा के सलाहकारों का यथोचित मान रखना। यह हमेशा ध्यान रहे कि तुम्हारे बाद अंगद ही राजा होगा।” इस प्रकार श्रीराम ने तारा का आदर करने की आज्ञा दी और सुगीव ने स्वाभाविकतः आज्ञा को प्रमाण माना। तारा ने भी राजनीति और कूटनीति का परिचय देते हुए सुग्रीव को राजा के रूप में स्वीकारा और वह किष्किंधा की राजमाता बनी।
सुग्रीव का राज्याभिषेक होने पर बहुत सालों बाद राजसुख प्राप्त होने के कारण वह अपनी पत्नी रूमा के साथ भोग-विलास में मगन हुआ। सीता की खोज करने में सुग्रीव टाल-मटोल कर रहा है, यह श्रीराम को ज्ञात हुआ। उन्होंने लक्ष्मण को सुग्रीव से भेंट करने की आज्ञा दी। लक्ष्मण सीधे सुग्रीव के अंतःपुर में पहुंचा, परन्तु उसे वहाँ अत्यंत व्यवहार कुशल तथा जिसे राजनीति का पूर्ण ज्ञान प्राप्त था, ऐसी राजमाता तारा मिली। लक्ष्मण का क्रोध शांत करना अत्यंत कठिन था, लेकिन तारा यह जानती थी कि लक्ष्मण स्त्रियों का सदैव आदर करता है, इसलिए उसी ने सर्वप्रथम लक्ष्मण के क्रोध का सामना किया। उसका क्रोध शांत होने के पश्चात् ही सुग्रीव लक्ष्मण के समक्ष आया। तारा और सुग्रीव ने लक्ष्मण को विश्वास दिलाया कि वे सीता की खोज करने हेतु अपने दूत सारी दिशाओं में पहले ही रवाना कर चुके हैं। इस तरह इस कठिन प्रसंग में राजमाता तारा, सुग्रीव का कवच बनी और उसकी बुद्धिमानी के कारण सुग्रीव का लक्ष्मण तथा श्रीराम के क्रोध से रक्षण हुआ। इस विकट परिस्थिति में तारा ने जो व्यवहार कुशलता दिखाई, वह उसके बेजोड़ व्यक्तित्व की साक्षी है। उसका नाम ही तो तारा, यानी तारक अर्थात जो तारण करती है वह तारा है।
वह एक महान स्त्री थी ही, परन्तु एक आदर्श और अत्युत्तम माता भी थी। अंगद, तारा और बाली का अत्यंत तेजस्वी और बलशाली पुत्र था, साथ ही वह अति बुद्धिमान, चतुर और सर्वगुणसंपन्न युवराज था। मात्र इन गुणों में वह अपनी माता का अनुगामी था। वह बाली जैसा शक्तिमान तो था, परन्तु गर्वोन्मत्त कभी नहीं हुआ। तारा को अपने इकलौते वीर पुत्र अंगद के पराक्रम और शौर्य पर पूरा विश्वास था। इसे सिद्ध करने के लिए एक ही उदाहरण पर्याप्त होग रावण के साथ निर्णायक युद्ध प्रारम्भ करने के पहले श्रीराम अंतिम प्रयत्न के रूप में दूत द्वारा रावण को संदेश भेजने का निर्णय लेते हैं कि वह सीता को लौटा कर हानिकारक युद्ध को टाल दे। इस महत्वपूर्ण कार्य हेतु एक राजनीति कुशल, चतुर तथा शूरवीर दूत का चयन आवश्यक था। तब वानर सेना में कई योद्धाओं के होते हुए भी राम उनमें सबमें युवा परन्तु महावीर और बुद्धिमान अंगद का ही चयन करते हैं।
रावण के दरबार में अंगद ने श्रीराम की सारी अपेक्षाओं को पूर्ण करते हुए वह उद्दिष्ट साध्य किया। ‘रामायण’ में वर्णित रावण दरबार में घटित ‘अंगद-रावण संवाद’ प्रसिद्ध है। तारा ने किष्किंधा के इस सर्वगुणसम्पन्न युवराज पर कैसे संस्कार किए होंगे, वे सब इस प्रसंग में अंगद के राजनीतिक चातुर्य और असीम बुद्धिमत्ता में प्रकट होते हैं। यह बात और अधिक विशेष लगती है क उसने बाली जैसे उद्दंड, कामी और घमंडी पति की छाया में होते हुए भी अपने पुत्र को इन अवगुणों से बचाकर रखा। तारा, बाली की पतिव्रता सहगामिनी तो है ही, परन्तु वह सुग्रीव, अंगद व सकल किष्किंधा की तारक यानि रक्षण करनेवाली सकल गुण मंडित स्वयंप्रकाशित तारा है। अर्थात हमारी चतुर्थ प्रातःस्मरणीय पंचकन्या।