बबिता कुमावत
सीकर (राजस्थान)
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सब कुछ सह जाती हैं
समाज की औरतें,
बदल नहीं पाई
फिर भी मानसिकता सबकी।
औरत को आँकने का तरीका
कभी नहीं बदल पाई वह,
ऐसी कोई इच्छा
रखी नहीं उसने,
जिसमें दबी हो चीखें
शोषित और पीड़ित वर्ग की।
जूझती हैं भले ही
पूरी उम्रभर,
पर उठ जाती हैं
एक पुकार से।
चाहे वह हो रंभाती हुई
गाय-भैंस की पुकार,
जिसमें छिपी है शोषण की दबिश।
वह करती है तुलना जब
अपनी परतंत्रता व
पशु की बंधन से,
लेती है वह चैन की साँस।
अपने को महसूस करती है खुला,
कि कहीं अधिक।
खुलापन आ गया है,
समाज की औरतों में॥