कुल पृष्ठ दर्शन : 7

समय है कि आतिशबाज़ी रहित त्योहार गढ़ें

ललित गर्ग

दिल्ली
***********************************

पर्यावरण संकट हमारे समय की सबसे बड़ी चुनौती बन चुका है। बढ़ता प्रदूषण, जलवायु परिवर्तन और प्राकृतिक संसाधनों की लगातार हो रही क्षति ने जीवन को असहज और असुरक्षित बना दिया है। यह संकट किसी दूर के भविष्य की चिंता नहीं है, बल्कि रोजमर्रा के जीवन को प्रभावित कर रहा है। राजधानी दिल्ली इसका सबसे जीवंत उदाहरण है, जहाँ दीपावली और अन्य त्योहारों के बाद वायु गुणवत्ता इतनी खराब हो जाती है कि साँस लेना तक मुश्किल हो जाता है। इसका एक प्रमुख कारण पटाखों का प्रयोग है। पटाखे और आतिशबाज़ी कुछ क्षणों के लिए उत्सव का शोर और रोशनी जरूर बिखेरते हैं, लेकिन उनके पीछे छूट जाता है जहरीला धुआं, असहनीय शोर, साँस लेने में तकलीफ और असंतुलित वातावरण। इस स्थिति में दिल्ली व राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में पटाखों पर अंकुश लगाने के संदर्भ में देश की शीर्ष अदालत की टिप्पणी संवेदनशील, मार्गदर्शक और जागरूकता बढ़ाने वाली है। अदालत ने सख्त लहजे में कहा कि यदि साफ वायु राष्ट्रीय राजधानी के विशिष्ट लोगों का हक है तो यह हक शेष देश के हर व्यक्ति को भी मिलना चाहिए। दिल्ली ही नहीं, सम्पूर्ण देश में वायु प्रदूषण को नियंत्रण करना जरूरी है।

दुनियाभर के प्रदूषित देशों में भारत पाँचवें क्रम पर है, दुनिया के सबसे ज्यादा प्रदूषित शहर भी हमारे ही देश में हैं, ऐसे १३ शहर दुनिया के शीर्ष २० प्रदूषित शहरों में शुमार हैं। इन चिन्ताजनक हालातों में हवा को जहरीला बनाने वाले पटाखे निरंकुश रूप से जलाना आत्मघाती कदम ही है। ये वातावरण में जहरीली गैसों का उत्सर्जन करते हैं, जिससे हवा की गुणवत्ता अचानक बेहद खराब हो जाती है। पटाखों से होने वाला ध्वनि प्रदूषण बच्चों, बुजुर्गों और बीमार लोगों के लिए भय व असहनीय पीड़ा का कारण बनता है। पशु-पक्षियों की स्थिति भी दयनीय हो जाती है। यह सब जानते हुए भी आतिशबाज़ी को लेकर समाज में अब भी ढिलाई और परंपरा के नाम पर अनदेखी जारी रहना दुर्भाग्यपूर्ण एवं विडम्बनापूर्ण है।
सर्वोच्च न्यायालय ने भी इस विकट स्थिति को गंभीरता से लिया है और हाल के वर्षों में बार-बार स्पष्ट किया है कि पूरे देश में पटाखों पर रोक लगनी चाहिए। अदालत की टिप्पणी के आलोक में हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि अब चाहे दुनिया का सबसे प्रदूषित शहर बर्नीहाट हो या पंजाब व राजस्थान के सबसे अधिक प्रदूषित शहर हों, उन्हें भी पटाखों के नियमन का लाभ मिलना चाहिए। हाल ही में अदालत ने सरकारों को यह सुनिश्चित करने के निर्देश दिए कि पटाखों के उत्पादन, बिक्री और भंडारण पर पूर्ण रोक हो, और जो भी इन नियमों का उल्लंघन करे उसके खिलाफ कठोर कार्रवाई की जाए। अदालत का यह रुख केवल कानूनी आदेश नहीं है, बल्कि समाज को चेताने वाला संदेश भी है कि अब हमें अपने उत्सवों की परिभाषा बदलनी होगी।
दिल्ली सरकार ने भी पर्यावरण संरक्षण अधिनियम की धारा ५ के तहत पटाखों पर पूर्ण और स्थायी प्रतिबंध लागू किया है। यह कदम पर्यावरण और नागरिकों के स्वास्थ्य की रक्षा के लिए जरूरी था, लेकिन केवल सरकारी आदेश और अदालत के निर्देश काफी नहीं होंगे, जब तक समाज स्वयं अपनी सोच और व्यवहार में बदलाव नहीं लाता। परंपराओं को बदलने में समय लगता है, लेकिन जैसे लोग धीरे-धीरे प्लास्टिक के खिलाफ खड़े हुए और विकल्प तलाशने लगे, वैसे ही आतिशबाज़ी से मुक्त त्योहारों को भी अपनाया जा सकता है। सवाल यह है कि लोग क्यों नहीं सोचते कि हमारे पटाखे जलाने से श्वांस रोगों से जूझते तमाम लोगों का जीना दुश्वार हो जाता है। यह एक हकीकत है कि देश के तमाम शहरों में हवा ही नहीं, पानी व मिट्टी तक में जहरीले तत्वों का समावेश हो चुका है। यही वजह है कि देश में श्वसन तंत्र से जुड़े रोगों में अप्रत्याशित वृद्धि हुई है। प्रदूषित हवा के प्रभाव में साँस संबंधी रोगों से लोगों के मरने का आँकड़ा भी बढ़ा है।
कहीं न कहीं हमारे वातावरण में बढ़ता प्रदूषण वैश्विक ताप बढ़ाने वाले कारकों में वृद्धि भी कर रहा है, लेकिन पटाखों से होने वाला प्रदूषण ऐसा है जो हमारे संयम के जरिए रोका जा सकता है। पटाखों के जलने से निकलने वाले कण श्वसन तंत्र को नुकसान पहुंचाने के साथ ही खून में घुल रहे हैं, जिसमें पीएम २.५ और १० जैसे महीन कण फेफड़ों में प्रवेश करके गंभीर रोगों को जन्म दे रहे हैं। इतना ही नहीं, पटाखे जलाने के कारण जहरीली रासायानिक गैसों के रिसाव से हमारे पारिस्थितिकीय तंत्र को गंभीर क्षति पहुंच रही है। इससे ओजोन परत भी क्षतिग्रस्त हो रही है, साथ ही ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन भी हमारे वायुमंडल में जलवायु परिवर्तन के संकटों को बढ़ाने में भूमिका निभा रहा है।
त्योहार और उत्सव हमारे जीवन का हिस्सा हैं। वे सामाजिक जुड़ाव, सांस्कृतिक गौरव और सामूहिक खुशी का प्रतीक हैं, पर जब खुशी मनाने का तरीका ही हमारे स्वास्थ्य और जीवन के लिए संकट बन जाए, तब उस पर गंभीर पुनर्विचार आवश्यक हो जाता है। अक्सर यह तर्क दिया जाता है कि “बिना पटाखों के त्योहार अधूरा लगता है” लेकिन यह सोच आज के समय में बेहद खतरनाक साबित हो रही है। त्योहार की असली रौनक दीपों की जगमगाहट, परिवार की एकजुटता, सांस्कृतिक कार्यक्रमों और सामूहिक उत्सवों में है। संगीत, नाटक, कला और पारंपरिक दीपक किसी भी पटाखे से कहीं अधिक स्थायी आनंद दे सकते हैं।
समय आ गया है कि हम यह स्वीकार करें कि आतिशबाज़ी अब हमारी खुशियों का हिस्सा नहीं रह सकती। खुशियों का असली मतलब है एक-दूसरे के साथ का आनंद, स्वच्छ वातावरण में खुलकर सांस लेना और समाज में शांति और प्रेम का संचार करना। अगर हम चाहते हैं कि हमारी अगली पीढ़ी सुरक्षित और स्वस्थ जीवन जी सके, तो आतिशबाज़ी को त्यागना ही होगा।

यही समय है कि हम सामूहिक रूप से एक नई परंपरा गढ़ें, आतिशबाज़ी रहित त्योहारों की परंपरा, ताकि आने वाली पीढ़ियाँ हमें दोष न दें।