डॉ.राम कुमार झा ‘निकुंज’
बेंगलुरु (कर्नाटक)
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आज हम इक्कीसवीं शताब्दी के रजत काल में जी रहे हैं।भौतिकता की भागम-भाग में पूरी दुनिया फंसी हुई है। रिश्ते-नाते, अपनापन सब भौतिक सत्ता पद धन वैभव की मृगतृष्णा में फँस तौले जा रहे हैं। निर्धारक बन स्वार्थपन ही नव अनुबन्धों और पारिवारिक अस्तित्व को परिभाषित और रूपांकित कर रहा है। धर्मपरायणता, कर्त्तव्य निर्वहण सब अधिकार बोध में सिमट गए हैं। न्याय नीति अदालतें सदाचार संस्कार विश्वास सबका सन्निवेश स्वार्थ सिद्धि के दृष्टिकोण से निर्धारित होता है। पुरुषार्थ और परमार्थ की परिभाषा बदल गई है। संवेदनशीलता एवं मददगारों का अर्थ बदल गया है। सहयोग और सहयोगी दोनों में अपनत्व तिरोहित हो गया है। अपनी स्वार्थपरत महफ़िल में सहयोग और सहयोगी बदल गए हैं। सही कार्य का विरोध करना ही अब एकमात्र साधन स्वार्थपरत लोगों का लक्ष्य-सा बन गया है। मानवता और नैतिकता कराह रही है। संवेदना सिसक रही है। वेदना ने संवेदना के सहयोग की आशा को छोड़ दिया है। खुशियाँ और मुस्कान भी सिसक रही हैं। मनुष्यों का दुर्लभ कुछ लम्हों का जीवन सभी मर्यादा, नीति-रीति, शान्ति, प्रेम और सद्भावना की समरसता के मार्ग से विरत हो लालच के अंधेरे में खो हिंसा, कलह, दंगा, छल, प्रपंच और मिथ्याचारी गुमराह गर्त में गिरकर उलझ गया है। आशा- निराशा के मकड़जाल में फंस विरोधी चिन्तना स्वार्थी जीवन का मानदण्ड बन गया है। फिर सहयोग रूपी निर्मल भावना का स्थान कहाँ शेष रह जाता है! पारिवारिक, सामाजिक , सांस्कृतिक, राष्ट्रीय और वैश्विक सहयोग स्वयं के विस्तार और अस्तित्व रक्षण व व्यक्तित्व में कहीं पीछे छूट गया है। अतः, मानवतावादी चिन्तना चिन्तनीय है। दिशाओं और दशाओं से भटकी दुनिया आत्म स्वार्थ को त्याग कर परस्पर कल्याण, नैरुज्य, शिक्षा, सर्वव्यापी विकास और सर्व न्याय, मान-समादर की श्रीवृद्धि में सहयोगी बने और पुन: सर्वसुख सर्वहित और ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ की अविरल सप्तसिन्धु तरंगों और लहरों में प्रवाहमान हो।
परिचय-डॉ.राम कुमार झा का साहित्यिक उपनाम ‘निकुंज’ है। १४ जुलाई १९६६ को दरभंगा में जन्मे डॉ. झा का वर्तमान निवास बेंगलुरु (कर्नाटक)में,जबकि स्थाई पता-दिल्ली स्थित एन.सी.आर.(गाज़ियाबाद)है। हिन्दी,संस्कृत,अंग्रेजी,मैथिली,बंगला, नेपाली,असमिया,भोजपुरी एवं डोगरी आदि भाषाओं का ज्ञान रखने वाले श्री झा का संबंध शहर लोनी(गाजि़याबाद उत्तर प्रदेश)से है। शिक्षा एम.ए.(हिन्दी, संस्कृत,इतिहास),बी.एड.,एल.एल.बी., पीएच-डी. और जे.आर.एफ. है। आपका कार्यक्षेत्र-वरिष्ठ अध्यापक (मल्लेश्वरम्,बेंगलूरु) का है। सामाजिक गतिविधि के अंतर्गत आप हिंंदी भाषा के प्रसार-प्रचार में ५० से अधिक राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय साहित्यिक सामाजिक सांस्कृतिक संस्थाओं से जुड़कर सक्रिय हैं। लेखन विधा-मुक्तक,छन्दबद्ध काव्य,कथा,गीत,लेख ,ग़ज़ल और समालोचना है। प्रकाशन में डॉ.झा के खाते में काव्य संग्रह,दोहा मुक्तावली,कराहती संवेदनाएँ(शीघ्र ही)प्रस्तावित हैं,तो संस्कृत में महाभारते अंतर्राष्ट्रीय-सम्बन्धः कूटनीतिश्च(समालोचनात्मक ग्रन्थ) एवं सूक्ति-नवनीतम् भी आने वाली है। विभिन्न अखबारों में भी आपकी रचनाएँ प्रकाशित हैं। विशेष उपलब्धि-साहित्यिक संस्था का व्यवस्थापक सदस्य,मानद कवि से अलंकृत और एक संस्था का पूर्व महासचिव होना है। इनकी लेखनी का उद्देश्य-हिन्दी साहित्य का विशेषकर अहिन्दी भाषा भाषियों में लेखन माध्यम से प्रचार-प्रसार सह सेवा करना है। पसंदीदा हिन्दी लेखक-महाप्राण सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’ है। प्रेरणा पुंज- वैयाकरण झा(सह कवि स्व.पं. शिवशंकर झा)और डॉ.भगवतीचरण मिश्र है। आपकी विशेषज्ञता दोहा लेखन,मुक्तक काव्य और समालोचन सह रंगकर्मी की है। देश और हिन्दी भाषा के प्रति आपके विचार(दोहा)-
स्वभाषा सम्मान बढ़े,देश-भक्ति अभिमान।
जिसने दी है जिंदगी,बढ़ा शान दूँ जान॥
ऋण चुका मैं धन्य बनूँ,जो दी भाषा ज्ञान।
हिन्दी मेरी रूह है,जो भारत पहचान॥