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सागर से गहरा नहीं दर्द

सौ. निशा बुधे झा ‘निशामन’
जयपुर (राजस्थान)
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घनघोर बादल उमड़ घुमड़ते आए,
काले मेघों को भी साथ लाए
रिमझिम-रिमझिम बरखा देख,
पुरवाई ने भी खुश हो शोर मचाया।

मैं बैठ गया आँधी देख,
चुप थी संध्या की बेला
मन व्याकुल हो गया,
जीवन अब कैसे रहेगा ?

एक लहर दौड़ कर आई,
बाँहें फैलाकर मुस्कुराई
मुसाफिरों की इस बस्ती में,
जी ले कुछ देर तू भी मस्ती में।

रात ये कट जाएगी,
आई मुसीबत टल जाएगी।
लहरें रोज टकराती है साहिलों से,
फिर हँसते गुजर जाती हैं मुसाफिरों से॥