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सिंहासन खाली करो कि, हिन्दी और भारतीय भाषाएं आती हैं…

डॉ. मनोहर भण्डारी
इंदौर (मध्यप्रदेश)
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जब से चिकित्सा शिक्षा को हिन्दी माध्यम से दिए जाने की घोषणा हुई है, तभी से अभी तक कुल मिलाकर लगभग डेढ़ सौ चिकित्सा शिक्षकों, चिकित्सकों, पत्रकार साथियों और गैर चिकित्सीय विद्वानों तथा विद्यार्थियों ने मुझसे बातचीत में सरकार के इस कदम की आलोचना एवं घोर निन्दा की है, उपहास उड़ाया है, आत्मघाती कहा है, १९ वीं सदी में ले जाने की बात कही है, यह भी कहा है कि फिर तो संस्कृत में ही दे दी जाना चाहिए, जब पीछे धकेल रहे हो तो पूरा ही धकेल दो, यहाँ तक कि भावी चिकित्सकों की गुणवत्ता पर प्रश्न उठाए गए हैं, विश्व पटल पर उनकी काल्पनिक अयोग्यताओं का भी उल्लेख किया गया है। इसके अतिरिक्त भी न जाने क्या-क्या कहा गया है। अभी भी सिलसिला अनवरत है।
इससे मैं बहुत उद्विग्न हूँ, व्यथित हूँ, दुखी हूँ, हतप्रभ हूँ, चिन्तित भी हूँ और आक्रोशित भी हूँ, मेरा आक्रोश सात्विक है।
इस स्थिति से उत्तेजित, प्रेरित होकर अत्यन्त ही विनम्रता के साथ मैं सभी सुधिजनों के संज्ञान में कुछ तथ्य लाने को विवश हुआ हूँ।

तुर्की की स्वतन्त्रता और उनकी भाषा-
जब तुर्की स्वतन्त्र हुआ, तब वहां के बादशाह कमाल पाशा ने अपने अधीनस्थों से कहा था कि अब सारा कामकाज तुर्की में होगा,तो वे बोले थे कि ऐसा करने के लिए कम से कम दस वर्ष लगेंगे। बादशाह ने उत्तर दिया-ठीक है, कोई बात नहीं, यही समझ लीजिए कि आज उस दस वर्ष का अन्तिम ३६५ वां दिन है I इस आदेश के तहत दूसरे ही दिन से तुर्की भाषा पूर्णरूपेण अस्तित्व में आ गई।

महात्मा गांधी का उद्घोष-
स्वराज, सुराज और स्वदेशी के प्रचारक राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की यह तीव्र मंशा थी और उन्होंने स्पष्ट रूप से ‘यंग इण्डिया’ में सम्भवत: १९३१ में कहा था कि “अगर मेरे हाथों में तानाशाही सत्ता हो तो मैं आज से ही विदेशी माध्यम के जरिए हमारे लड़के-लड़कियों की शिक्षा बन्द कर दूं, और सारे शिक्षकों एवं प्राध्यापकों से यह माध्यम तुरन्त बदलवा दूं। या उन्हें बर्खास्त कर दूं। मैं पाठ्यपुस्तकों की तैयारी का इन्तजार नहीं करूंगा। वे तो माध्यम के परिवर्तन के पीछे-पीछे चली आएंगी। यह एक बुराई है, जिसका तुरन्त इलाज होना चाहिए।”
हमें तो गर्व होना चाहिए कि गांधी जी की मंशा पूर्ण होने का शंखनाद हुआ है। गांधी जी के सिद्धान्तों को मूर्तरूप देने वाले दृढ निश्चयी मोदी जी ने स्वतंत्रता के अमृत महोत्सव पर इसका शुभारम्भ किया है। मोदी जी के ही नेतृत्व में देश के एक हिन्दीभाषी मध्य प्रदेश ने उनकी मंशा को साकार करने की दिशा में समारोहपूर्वक पहला कदम बढ़ाया है। यह तो भाषाई गुलामी से मुक्ति का महापर्व है। इस पर्व की पूर्ण सफलता में आने वाली सम्भावित कठिनाइयों के व्यावहारिक समाधान, प्रदेश सरकार और केन्द्र सरकार को देने हेतु हमारे द्वारा युद्धस्तर पर प्रयास किए जाने की अपेक्षा थी और अभी भी है। हम सभी के सहयोग के बिना क्या कोई भी सरकार ऐसे राष्ट्रहित के कार्य को समय-सीमा में व्यापक रूप में पूर्ण कर सकती है ?
क्या स्वतन्त्रता के तुरन्त बाद ही गांधी जी की मंशा साकार हो जाती, तब भी क्या, ये सभी प्रकार की आशंकाएं-आलोचनाएं हम सभी के मन-मस्तिष्क में उसी परिमाण में आकार लेती ? उत्तर है कदापि नहीं लेती। क्यों, क्योंकि तब तक अंगरेजी ने हमारे मन-मस्तिष्कों को इतना ग्रसित नहीं किया था, गुलाम नहीं बनाया था। इसलिए भी कि हम उस समय बाजारवाद के आक्रामक प्रचार-प्रसार से मुक्त थे।

हिन्दी की प्रासंगिकता-
हिन्दी मातृभाषा से आए चिकित्सा विद्यार्थियों के जीवन में हिन्दी की उपयोगिता का इससे बढ़कर क्या प्रमाण होगा कि जब अंगरेजी में पढ़ाई-परीक्षाओं के अनेक सोपानों को पार करते हुए साढ़े ५ वर्ष की पढ़ाई के बाद चिकित्सक जब पूर्व-स्नातकोत्तर की तैयारी करते हैं तब भी वे अवधारणा समझने के लिए हिंगलिश में उपलब्ध व्याख्यानों को सुनते हैं। इसका अर्थ यह है कि अंगरेजी जानने-समझने वाले चिकित्सकों के लिए हिन्दी अवधारणा समझने की दृष्टि से अंगरेजी से बेहतर है I

अंगरेजी थोपे जाने के षड्यंत्र से अनभिज्ञ भारतीय-
यह बताना प्रासंगिक होगा कि भारत में तीव्रता के साथ अंगरेजी केवल ज्ञानार्जन के लिए नहीं पधराई गई थी, यह हमारी संस्कृति, हमारी परम्पराओं, हमारी धार्मिकता, हमारी विश्व स्तर की धरोहरों-उपलब्धियों को अंधविश्वास सिद्ध करते हुए, उन सबकी चुपचाप (ताकि आपको पता ही नहीं चले) अंगरेजी द्वारा जड़ें काटी जा सकें। वे पूरी तरह सफल होते ही जा रहे हैं।
हमारी विज्ञानसम्मत भाषा, देश, काल और परिस्थितियों के अनुरूप भूषा और भोजन आपसे विलग कर दिए गए हैं, उन्हें बड़े ही शातिराना और गुप्त तरीके से अपदस्थ किया जा चुका है। आप अनभिज्ञ हो और हमारे व्यवहार में ऐसे बदलाव आ चुके हैं कि माता-पिता को स्वप्न में वृद्धाश्रम दिखने लगे हैं, क्योंकि अनायास ही श्रवण कुमार लुप्त हो गए हैं। हम धर्म (नैतिकता), अर्थ (नैतिकता की सीमा में धनार्जन), काम (नैतिक मूल्यों का सम्मान करते हुए सुख सुविधाओं का उपभोग) और मोक्ष (अर्जित अतिरिक्त धन का परमार्थ हेतु उपयोग, जैसे टाटा,बिरला आदि अनेकानेक धनाढ्य करते हैं) के क्रमिक पुरुषार्थ मार्ग से भटक कर जिस किस तरीके से धन का अर्जन करना (अर्थ) और नैतिक-अनैतिक को भुलाकर अच्छी-बुरी सुख सुविधाओं का भोगने, शराब, जुआ, नशा, स्वच्छन्द यौनाचार (काम) में ही बुरी तरह जकड़ चुके हैं। बेटियाँ तक माँ-बाप की हत्या कर डालती हैं, केवल धन हथियाने के लिए ही नहीं, अपितु मोबाइल या छद्म प्रेमी के लिए भी। हमें कोई भान ही नहीं है, इन गम्भीर आत्मघाती स्थितियों के विषय में चिन्ता कदापि नहीं है, इसे जमाने की दौड़ का सहज परिणाम मान कर चुप्पी साधे हुए हैं। हमें लगा ही नहीं कि इसके पीछे के क्या-क्या सम्भावित कारण हो सकते हैं। आखिर इस विषय में हमने क्यों नहीं सोचा ? हमें आज से ही सोचना शुरू कर देना चाहिए, देर आयद दुरुस्त आयद।
‘हे राम’, ‘ओह शिट’ हो गया, ‘राम-राम’ ‘हैलो-हाय हो गया, आपकी माँ मम्मी और माम तथा पिताजी डैडी और अब डैड हो चुके हैं। पूर्णतया वैज्ञानिक और स्वास्थ्यप्रद शौच पद्धति पूर्णतया अवैज्ञानिक कमोड के सम्मान में लुप्तप्राय: हो चुकी है I दीप प्रज्ज्वलन के स्थान पर पवित्र अग्नि देवता को थूक मिश्रित फूंक मार कर अपशगुन को आमंत्रित किया जाना एक आन्दोलन बन गया है। मटके का क्षारीय पानी ‘आरो’ के जहरीले एसिडिक (विश्व स्वास्थ्य संगठन) पानी से डर कर भारतीय घरों से पलायन कर चुका है, अनेकानेक स्वास्थ्य लाभों से परिपूर्ण ताम्बे का पानी ‘बेड टी’ के कारण आत्मघात कर चुका है। तंग और खुरदुरे वस्त्रों में हमारी त्वचा साँस नहीं ले पाती है, प्रत्येक एक वर्ग इंच त्वचा पर सीमा सुरक्षा दल के मुस्तैद सैनिकों की तरह करोड़ों मित्र सूक्ष्म जीवाणु होते हैं, वे नष्ट होने लगते हैं, परिणामत: त्वचा रोगों की बाढ़ आ गई है। खड़े-खड़े जूते-मौजे पहनकर जल्दी-जल्दी भोजन करने से अपच, मोटापा, मधुमेह और यहाँ तक कि कैंसर की सम्भावनाएं अत्यधिक बढ़ जाती है और हम अनभिज्ञता में अनुसरण करते चले जा रहे हैं।

भारतीय भाषाएं, मानवीयता एवं ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’-
जिस संस्कृत की वैज्ञानिकता पर पाश्चात्य वैज्ञानिक और ‘नासा’ अपने शोधों के निष्कर्ष से हतप्रभ और प्रफुल्लित होकर उसकी अनुशंसा कर रहे हैं। महान भाषावादी और अमेरिका में लिंगविस्टिक सोसाइटी के संस्थापक लियोनार्द ब्लूमफिल्ड ने पाणिनि अष्टाध्यायी के अध्ययन के बाद कहा है कि “संस्कृत मानवीय बुद्धिमता का महानतम मन्दिर है।” यूनेस्को ने माना है कि संस्कृत में जाप से मन और तन पर सकारात्मक प्रभाव पड़ता है। उस संस्कृत की बेटियों (भारतीय भाषाओं) की वैज्ञानिकता, संवेदनाओं का वरदान देने वाली, बौद्धिक चेतना से सम्पन्न करने वाली क्षमताओं से अनभिज्ञता के साथ घर निकाला देने में गर्व का अनुभव कर रहे हैं। हमें मालूम ही नहीं है कि युद्ध या एकाधिकार की आकांक्षा, परमाणु हथियारों की बाढ़, सबको पराजित और अधीन करने की उत्कट मनोकामना, भयावह हिंसा की स्वीकार्यता, धन के लिए सब-कुछ जायज मानने की उत्कट लालची वृत्ति, अहंकार, मदान्धता, सभी को गुलाम बना देने की तीव्र और तानाशाह मानसिकता के सशक्तिकरण में कहीं न कहीं भाषा का भी हाथ हो सकता है। आखिर क्यों भारत की पुण्यभूमि पर जन्म लेने वाले हिन्दू अवतारों, जैन तीर्थंकरों, गौतम बुद्ध और उनके अनुयायी शासकों ने शक्ति सम्पनता के उपरान्त भी शान्ति, संतुष्टि, सरलता, सहजता, अहिंसा, जियो और जीने दो, सर्वे भवन्तु सुखिनः, विश्व का कल्याण हो, प्राणियों में सद्भावना हो जैसे जीवनदायी मन्त्रों का उद्घोष कर उन्हें जीवन में अंगीकार किया है ? कबीरदासजी, स्वामी रामतीर्थ, महर्षि अरविन्द, स्वामी रामकृष्ण परमहंस, स्वामी विवेकानन्द जैसे अनेक लोगों की परम्परा है, जिन्होंने जीवनपर्यन्त देश-विदेश में मानवता का दिव्य सन्देश दिया। हिन्दी माध्यम से पढ़े-बढे ओशो की बुद्धिमता और आभामंडल से अमेरिका की सरकार तक भयभीत रहती थी, इन सभी बातों से यही ध्वनित होता है कि अंगरेजी और बौद्धिक श्रेष्ठता का कोई स्थायी सम्बन्ध नहीं है I प्रश्न यह है कि आखिर क्यों मोदी जी जैसे सैन्य शक्ति से सम्पन्न तथा सशक्त शासक को विश्व के अधिसंख्य नागरिक विश्वशान्ति का अग्रदूत मान रहे हैं ? मेरे अभिमत में इसमें संस्कृति के साथ-साथ संस्कृत से जन्मी भाषाओं का बहुत बड़ा हाथ है।

भारतीय भाषाओं का विज्ञान-
नेशनल ब्रेन रिसर्च सेंटर (नई दिल्ली) की एक प्राथमिक शोध, जो ‘करेंट’ नामक विज्ञान पत्रिका में प्रकाशित हुई थी कि संस्कृत से जन्मी भाषाओं और अंगरेजी में मौलिक अन्तर होने से अंगरेजी पढ़ने से मस्तिष्क का बायाँ गोलार्द्ध ही अधिक सक्रिय होता है, जो तर्क, गणित, खण्ड-खण्ड विश्लेषण आदि से जुड़ा है और दायाँ गोलार्द्ध करुणा, शान्ति, वात्सल्य, ममता, कला, संगीत, अखण्ड दृष्टि आदि से जुड़ा है। अमेरिका और ब्रिटेन की तरह भारत में भी तेजी से हो रहे पारिवारिक विखंडन और धनप्रधान मानसिकता की पृष्ठभूमि में अंगरेजी के हाथ को खोजा जाना चाहिए। विद्यालयों में गर्भपात की समस्त सुविधाओं के उपरान्त भी हर वर्ष अमेरिका और ब्रिटेन की लाखों कुंवारी किशोरी माताओं की भयावह बाढ़ के पीछे अर्थ और काम प्रधान वाली अंगरेजी भाषा की भूमिका पर शोध किए जाने चाहिए। भारतीय मानस या यूँ कहें, आयुर्वेद हरेक व्यक्ति को प्रकृति के सन्दर्भ में एक पृथक व्यक्तिसत्ता मानकर उपचार और दिनचर्या निश्चित करता है और जबकि अंगरेजी चिकित्सा विज्ञान एक देश के सभी व्यक्तियों को एक समान मशीन मानने का ज्ञान देता है, इसलिए रोग विशेष में सभी भारतीयों के लिए अधिकांशत: समान दवाएं प्रिस्क्राइब की जाती है, मात्रा उम्र के साथ बदल जाती है। आपने यह भी देखा होगा कि एक पेट रोग या स्त्रीरोग, या नेत्र विशेषज्ञ साढ़े ५ वर्षीय पाठ्यक्रम (एमबीबीएस) में निष्णात होने उपरान्त भी रोगी के साधारण सर्दी-बुखार के उपचार के लिए जनरल फिजिशियन के पास भेजता है, यह दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति एक विकासशील देश के मध्यमवर्गीय या निम्नवर्गीय रोगी को अनेक विशेषज्ञों के बीच फुटबाल बना कर उसकी आर्थिक स्थिति को गम्भीर रूप से प्रभावित कर डालती है।
अस्तु, ज्ञान आयोग के बाल्यावस्था में ही अंगरेजी थोपने के निर्णय ने तो पैदा होते ही मानो कुनैन की गोली को अनावश्यक रूप से जबरिया जीवन घुट्टी का नाम देकर बच्चों के मुँह में ठूंसने का बहुत बड़ा पराक्रम किया है।

हिन्दी माध्यम से चिकित्सा शिक्षा और गहन चिन्ता-
चिकित्सा शिक्षा हिन्दी माध्यम से दिए जाने के निर्णय से हमें इस बात की तो गहन चिन्ता हो गई है कि, हिन्दी पढ़कर निकले चिकित्सक विदेशी शोध पत्रिकाओं को कैसे पढ़ेंगे ?, परन्तु हमने आज तक यह पता नहीं किया कि अंगरेजी माध्यम से पढ़े कितने प्रतिशत भारतीय चिकित्सक देशी और विदेशी पत्र-पत्रिकाओं के शोधों को पढ़ते हैं। मैंने लगभग ढाई दशक तक सफलतापूर्वक दवाखाना चिकित्सक के रूप में अभ्यास किया, मुझे तो इसकी कभी आवश्यकता ही नहीं पड़ी। जो नगण्य चिकित्सक पढ़ते हैं, वे उन शोधों को अपनी अभ्यासी जिंदगी में कितना अपनाते हैं, यदि ऐसा शोध करेंगे तो वास्तविकता का अनुमान लग सकेगा।
विदेशों की चिंता में आकण्ठ डूबे हम लोगों ने यह भी कभी पता ही नहीं किया कि, गाँवों के नागरिकों को बुनियादी स्वास्थ्य सुविधाएं मिलती हैं अथवा नहीं मिलती है या उन सुविधाओं का स्तर कैसा है। हमारे ग्रामीण परिवार इसी के चलते, शने:-शने: गाँवों को छोड़कर शहरों की भीड़-भाड़ भरी अपरिचित जिन्दगी में अपनी अस्मिता को तिरोहित करने को विवश हो चुके हैं। अपने ग्रामीण नागरिकों की चिन्ता प्राथमिकता से करने की आवश्यकता है। सम्भव है, यह भाषाई परिवर्तन गाँवों के लिए भी वरदान सिद्ध हो।

चिकित्सा विद्यार्थी और उनकी आपराधिक अनदेखी-
दुःख इस बात का भी है कि हमें इस बात की कभी चिंता नहीं हुई है कि हिन्दी माध्यम से प्रवेशित कितने प्रतिशत चिकित्सा विद्यार्थी अंगरेजी के आतंक से भयातुर होकर घर से दूर अपने बन्द कमरों में अकेले क्रंदन करते रहते हैं और उनकी वाणी में अनायास उतर गई निराशा की अनुगूँज को माँ-बाप पहचान लेते हैं और फिर वे माता-पिता कितने व्यथित, आक्रांत और आशंकाओं के समुद्र में डूबते उतराते रहते हैं ? विश्वास कीजिए साहब, आपकी आत्मा बुरी तरह काँप जाती। वे तो हमारे अपने बेटे-बेटियाँ ही हैं, विदेशी या पराए नहीं हैं। उनकी हमने कभी चिन्ता नहीं की। हमें पैरों की आग नहीं दिखाई दे रही है, परन्तु पहाड़ों की आग की गहरी चिन्ता है। एक शोध करवाइए कि, कितने बच्चे पिछले ४० वर्ष में प्रथम वर्ष में अंगरेजी भाषा के कारण अनुत्तीर्ण हुए हैं और फिर पूरक परीक्षा में पहली बार में ही सफल हुए हैं। पता चलेगा कि प्रवेश परीक्षा में शीर्ष सातवां-आठवां स्थान पाने वाले तक असफल हुए थे, अन्यों की कल्पना की जा सकती है।
यह पता करवाना चाहिए कि कितने बच्चों ने एमबीबीएस का साढ़े ५ वर्ष का पाठ्यक्रम ८-१०-१५ वर्ष में पूरा किया है ? चिकित्सा शिक्षा में अंगरेजी भाषा की अपरिहार्यता-अनिवार्यता ने नीति निर्धारकों, अध्यापकों आदि सभी को आत्मसम्मोहित कर रखा है।

समस्या का समाधान और योजना-
मेरी तत्कालीन प्रमुख डॉ. सुखवंत बोस (स्वामी विवेकानन्द की अनुयायी)ने ऐसे बच्चों के दर्द को समझा और मुझसे पूछा कि क्या मैं उनके अभियान में साथ दूंगा ? फिर हम दोनों ने ऐसे बच्चों के मनोबल को बढ़ाने का पराक्रम शुरू किया और हिंगलिश में सरलता के साथ, वर्ष में केवल २-३ दर्जन अतिरिक्त कक्षाओं के रूप में पढ़ाना शुरू किया। हम केवल एक विषय ‘फिजियोलॉजी’ ही पढ़ाते थे। अन्य शिक्षकों को लगा कि कहीं सरकार हमें भी इस काम में नहीं लगा दें तो उस पुनीत कार्य को ट्विस्ट कर हमारी ऊपर तक शिकायत की गई। कक्षाएं बन्द हो गई, बच्चे दुखी हुए। फिर मैडम ने एक निर्विवाद वैधानिक रास्ता निकाला, फिर अभियान शुरू हुआ। जब कक्षाएं शुरू की थी, तब हर साल ३५-४० बच्चे असफल होते थे, ४-५ वर्ष बाद २००४ के परिणाम निकले तो यह संख्या कम होते-होते ६ रह गई थी। जब उन्हें यह विश्वास हो गया कि हमारा कोई सहृदयी है, तो उनका मनोबल बढ़ा, आत्मविश्वास जागा और वे तीनों विषयों में बेहतर प्रदर्शन करने में सक्षम हुए। स्वामी विवेकानंद जी ने कहा था शिक्षा विद्यार्थियों के भीतर अन्तर्निहित प्रतिभा का प्रस्फुटन करती है, हमसे वही अनायास होता चला गया। सरकार ने २००४ में प्रदेश के सभी चिकित्सा महाविद्यालयों से पूछा कि विद्यार्थियों के उन्नयन के लिए आपके संस्थान में क्या-क्या नवाचार हो रहे हैं, तो अधिष्ठाता ने मैडम और मेरे इस नवाचार को उपलब्धि के रूप में प्रस्तुत किया था। तब से ऐसे सभी बच्चों का ईश्वर ने मुझे स्थायी और विश्वसनीय मित्र बना दिया था। हिन्दी बहुल अंगरेजी में पढ़ाना मेरी दैनिक चर्या हो गया। मैंने मैडम द्वारा किए गए पराक्रम के अनुभवों के आधार पर “हिन्दी माध्यम और आरक्षित वर्ग के विद्यार्थियों और सकल चिकित्सा शिक्षा के उन्नयन की शून्य बजट प्रभार की सार्थक योजना” को कागजों पर उतारा और अनेक चिकित्सकों, शिक्षाविदों आदि से उस पर टिप्पणी चाही, सभी टिप्पणियां सकारात्मक और सराहनाओं से परिपूर्ण थी। उस योजना को विद्वानों की टिप्पणियों के साथ २००९ में केन्द्रीय स्वास्थ्य मंत्री गुलाम नबी आजाद को प्रेषित किया था। उस आदेश को लालफीताशाही समूचा निगल गई।

हताशा और अंगरेजी माध्यम-
अस्तु, हिन्दी भाषा की आवश्यकता को निरूपित करने हेतु एक प्रसंग का उल्लेख प्रासंगिक होगा, एक सामान्य श्रेणी की छात्रा अपने अभिभावकों के साथ मैडम बोस से मिली, जो फिजियोलॉजी की प्रमुख होने के साथ-साथ विद्यार्थी शाखा समिति की प्रमुख भी थी और मैं समिति का सदस्य। वे अपनी बेटी को महाविद्यालय से निकालना चाहते थे, क्योंकि वह अंगेरजी के कारण निराशा और हताशा की शिकार हो चुकी थी। तात्कालिक व्यस्तता के चलते मैडम ने उन्हें मेरे पास भेज दिया I मैंने बहुत समझाया, परन्तु तीनों अड़े रहे। मैंने उससे स्पष्ट कह दिया कि बेटी! तू ८ दिन में सोच ले कि तुझे चिकित्सक बनने का सपना छोड़ देना चाहिए या नहीं छोड़ना चाहिए। तीनों मेरी इस हरकत को तानाशाही निरूपित करते हुए बहुत अप्रसन्न हुए। कुछ दिन बाद वह बिटिया चुपचाप आने लगी और वातावरण से समरस और सहज हो गई। जब उसे अंतिम वर्ष में स्वर्ण पदक मिला तो बोली, सर, आपके आशीर्वाद से मुझे यह उपलब्धि हुई है। ऐसे तमाम अनुभवों के आधार पर मैंने एनएमसी को कई बार लिखा है कि, सभी विद्यार्थियों के लिए सप्ताह में एक बार महाविद्यालय में ही मनोचिकित्सक और मनोविज्ञानी को बिठाया जाना चाहिए।

गलती और परिषद् व्यवस्था-
भारतीय चिकित्सा परिषद् (एमसीआई) के नियम चीख-चीखकर कहते हैं कि प्रथम वर्ष में जो विद्यार्थी अनुत्तीर्ण हो जाएं, उन्हें कभी भी अपनी मुख्य बैच में सम्मिलित नहीं किया जाएगा। यानी कथित गुणवत्ता की आड़ में उनका एक वर्ष तो बर्बाद करना ही, साथ ही उनके अपने सहपाठियों से विलग कर उनकी मानसिकता को कुण्ठित करना भी परोक्ष दायित्व इस नियंता संस्था ने बड़ी मुस्तैदी से सम्भाल रखा था। इस संस्था ने कभी स्वयं से यह प्रश्न नहीं किया कि आखिर प्रतिभा संपन्न बच्चे असफल क्यों होते हैं और उसका समाधान कैसे किया जा सकता है ? अफसोस और धिक्कार है कि ऐसी संवेदनशून्य और विद्यार्थियों के प्रति उपेक्षा का स्थायीभाव रखने वाली संस्थाएं देश में चिकित्सा शिक्षा की उच्चतर गुणवत्ता के लिए दायित्व को सगर्व धारण करती हैं। निवेदन है कि ऐसी संवेदनशून्य संस्थाओं पर सभी प्रश्न उठाएं। विचारणीय है।

शोध प्रबन्ध हिन्दी में इसलिए-
विभागीय परीक्षाओं में लिखे हिन्दी माध्यम से आए बच्चों के उत्तर, स्पेलिंग और वाक्य रचना शिक्षकों के लिए उपहास का विषय हुआ करती थी, कई बार उन्हें कक्षा में उत्तरपुस्तिका दिखाकर मखौल का शिकार भी बनाया जाता था। मुझे बुरा लगता था, क्योंकि मैंने पढ़ाते समय हमेशा स्वयं को विद्यार्थियों के बीच एक छात्र के रूप बैठे देखा है, तो मुझे लगता था कि यह मेरा ही अपमान है। तब अचानक एक दिन मस्तिष्क में विचार कौंधा कि हिन्दी में भी चिकित्सा विज्ञान लिखा जा सकता है। यह सिद्ध करने के लिए अंगेरजी में तैयार हो चुकी अपनी शोध पांडुलिपियों के भाषान्तरण की ठान ली और इस तरह मैं मध्यप्रदेश का हिन्दी में अपने स्नातकोत्तर अध्ययन का शोध प्रबन्ध हिन्दी में प्रस्तुत करने वाला पहला चिकित्सक बना। उस दौर में मेरा बहुत मजाक बनाया जाता था। मुझे स्वामी विवेकानन्द जी का वह वाक्य स्मरण हो आता था कि, दुनिया क्या कहेगी, हँसेगी, उसे हँसने दो। बस, मैं अपने निर्णय से डिगा नहीं।
अंगरेजी माध्यम की अनिवार्यता से दुखी और निराश विद्यार्थियों के हितार्थ मांग तो यह उठाई जाना चाहिए थी कि, हिन्दी माध्यम से आने वाले बच्चों को अंगरेजी के आतंक से आतंकित नहीं होने देंगे और उन्हें अंगरेजी का आवश्यक ज्ञान देने की मांग करेंगे, परन्तु आज तक किसी उपदेशक ने ऐसा नहीं किया। सभी माध्यमों पर हम हिन्दी माध्यम में चिकित्सा शिक्षा के शुभारम्भ पर प्रश्न तो उठा रहे हैं, परन्तु मूल समस्या का हमने अनुमान ही नहीं किया और समाधान का तो प्रश्न ही नहीं उठता है। और तो और न तो सरकारी तंत्र ने, न ही शिक्षकों ने उन बच्चों के अंतस में झाँकने का प्रयास नहीं किया।

सकारात्मक सोचिए-
हम सबको सकारात्मक सोचना चाहिए, बड़ा सोचना चाहिए, हिन्दी के परम वैभव की कल्पना कर तदर्थ रणनीति बनाने का दायित्व हम पर है। हिन्दी आएगी, ज्ञानार्जन अधिक सरलता से और बेहतर होगा, ज्ञान अधिक क्षमता से आत्मसात होगा। हिन्दी भाषा से हमारे भावी चिकित्सकों में तर्क क्षमता, विश्लेषण क्षमता, निर्णय क्षमता, रोग निदान की श्रेष्ठता का आविर्भाव सहजता से होगा। आधुनिक चिकित्सा विज्ञान के पिता के नाम से प्रसिद्ध डॉ. विलियम ओस्लर ने कहा था कि चिकित्सा पद्धतियों का आविष्कार एक मनुष्य की दूसरे मनुष्य की पीड़ाओं को हरने की संवेदना से भरपूर प्रबल इच्छा के कारण होता है। बौद्धिक क्षमता का विकास अंगरेजी से ही हो सकेगा, यह भ्रान्त धारणा है, यह तो हर विद्यार्थी की अपनी नैसर्गिक सम्पदा होती है, जिसे थोपी जा रही अंगरेजी ने नष्ट कर दिया, करती रही है।
भारत संवेदनाओं की भूमि है। जिस भाषा में वे सपने देखते हैं, विचार करते हैं, उस भाषा में पढ़ाएंगे तो वे ज्ञान को समग्रता से आत्मसात करेंगे, चिकित्सा विज्ञान के जटिल सिद्धांतों को पूर्णता के साथ ग्रहण करेंगे।I भाषा परस्पर संवाद का माध्यम है और वैसे भी जब चिकित्सक की देश के अहिन्दी भाषी क्षेत्रों में पदस्थापना होती है तो वहां की स्थानीय भाषा तो पहले भी सीखते ही रहे हैं, अभी भी सीखेंगे ही। चिकित्सा के व्यवसाय में रोगी और चिकित्सक के बीच पारस्परिक विश्वास का रिश्ता सदैव ही जीवन्त रहना अपरिहार्य है। हिन्दी माध्यम के कारण रोगी को उसके रोग और उपचार आदि के विषय में उसकी अपनी भाषा में समझाना भी चिकित्सक के लिए सहज होगा।

अरे बाप रे! हिन्दी में पुस्तकें!!-
अस्तु, जब एल्सिवियर प्रकाशन की हिन्दी में तैयार पुस्तकों का विमोचन होने वाला था, तब किसी ने अमेरिका स्थित मूल प्रकाशक को बताया कि पुस्तकों का लोकार्पण हो रहा है। उन्हें बताया गया कि भारत में स्वतन्त्रता के बाद पहली बार हिन्दी में चिकित्सा शिक्षा की पुस्तकें उपलब्ध होंगी और शिक्षा का माध्यम हिन्दी होने वाला है तो उन्हें घोर आश्चर्य हुआ कि क्या अभी तक चिकित्सा विज्ञान की पुस्तकें हिन्दी में नहीं थी। मित्रो! यह प्रतिष्ठित प्रकाशन चिकित्सा शिक्षा की पुस्तकें विश्व की ३१ भाषाओं में उपलब्ध करवाता है और दुर्भाग्य देखिए कि उनमें विश्वगुरु भारत की कोई भी भाषा सम्मिलित नहीं है, क्या अब भी हमें किन्तु-परन्तु करने का अधिकार है।

हिन्दी श्रेष्ठतम सिद्ध होगी-
मित्रों! ७४ वर्ष तक अंगरेजी को आजमाया है, आने वाले १५-२० साल तक माता हिन्दी या भारतीय भाषाओं को भी आजमा लीजिए और लिखकर रख लीजिए कि विश्व के सबसे सम्पन्न एवं शक्तिशाली तथा अंगरेजी मातृभाषा वाले देशों के विद्यार्थी भारत में हिन्दी माध्यम के एमबीबीएस और आयुर्वेद पाठ्यक्रम में पढ़ने आएंगे और हिन्दी विश्व के एकीकरण की भाषा होगी I हिन्दी भाषा के पास ३५ लाख शब्द हैं और अंगरेजी के पास ५० हजार शब्द ही हैं। हम तकनीकी शब्दों को जस का तस स्वीकार लेंगे या नए शब्द गढ़ लेंगे, नए शब्द गढ़ने का समय आ गया है।
गाँवों की प्रदूषणरहित मानसिकता और वायुमंडल में जन्मे विद्यार्थी जब हिन्दी माता की संवेदनशील गोद में बैठकर चिकित्सा की पढ़ाई करेंगे तो परिदृश्य अनूठा होगा और पुनः भारतीय ऋषि-मुनियों की वैज्ञानिक परम्पराओं का उदय होगा। अभी तो केवल आस्ट्रेलिया के सर्जन्स महाविद्यालय के मुख्य प्रांगण में विश्व के पहले शल्य चिकित्सक के रूप में महर्षि सुश्रूत विराजमान हैं, कालान्तर में विश्वभर में भगवान् धन्वन्तरि की पूजा होगी। वन स्नान या वायु चिकित्सा अभी तक केवल जापान और अमेरिका में अपनाई जा रही है, इनका भी वैश्वीकरण होगा।

गुणवत्ता की चिन्ता मत कीजिए-
इन अनुदित पुस्तकों की गुणवत्ता पर प्रश्न उठाए जाने लगे हैं। मुझे अच्छी तरह याद है, मैं साइकल सीखते समय पचीसों बार घुटनों को जख्मी कर चुका था, परन्तु घर के बड़ों ने यह नहीं कहा कि तेरी साइकल चलाने की गुणवत्ता घटिया है और अब तू भूलकर भी साइकल को हाथ मत लगाना। कुछ दिनों बाद मैं बिना हैंडल पकड़े ३ किलोमीटर तक साइकल चलाने में निष्णात हो गया था। ये पुस्तकें सुधार के अनेक दौर पार करते हुए विश्व के कोने-कोने में पढी जाएंगी, और आप सभी इस अतिशयोक्ति पूर्ण निराधार घोषणा को सत्यापित होते हुए देखेंगे।
संक्रमण काल या शैशवावस्था को बीत जाने दीजिए, बच्चा पहले लुढ़कना सीखता, फिर घुटनों के बल चलना, फिर डगमगाते हुए खड़े होना, और फिर सहारे से चलना और फिर दौड़ना भी सीख ही लेता है।

निश्चिन्त रहें-
बताना चाहता हूँ कि भाषाविद, देश के प्रसिद्ध न्यूरोलॉजिस्ट पद्मश्री स्व.डॉ. अशोक पनगढ़िया ने लिखा था कि “जो व्यक्ति अपनी मातृभाषा में निष्णात होता है, वह दूसरी भाषा को सरलता से सीख सकता है।” नागपुर के धर्मपीठ विज्ञान महाविद्यालय के स्वर्ण जयन्ती समारोह पर भारतरत्न डॉ.ए.पी.जे. अब्दुल कलाम ने शिक्षकों को सम्बोधित करते हुए कहा था कि “बच्चों को गणित और विज्ञान की शिक्षा मातृभाषा में दी जाना चाहिए। इससे वे उस ज्ञान को समग्रता से आत्मसात कर सकेंगे और अंगरेजी तो वे बाद में पिक-अप कर लेंगे, जैसे मैंने की है।”
हिन्दी में शिक्षित-दीक्षित चिकित्सकों की अंगरेजी की चिन्ता करने की आवश्यकता इसलिए भी नहीं है, क्योंकि पूरे साढ़े ५ वर्ष तक वे उन चिकित्सकों के शिष्य रहेंगे, जिनकी जिव्हा पर अंगरेजी सहज रूप से विराजमान है और डरने की आवश्यकता नहीं है, वे स्वत: भी प्रयास करेंगे ही, शोध पत्र जर्नल्स में भेजेंगे तब भी अंगरेजी में ही तैयार करेंगे।

हिन्दी में चिकित्सा शिक्षा, चन्द ऐतिहासिक तथ्य-
हिन्दी प्रेमियों के आन्दोलनों के कारण दिसम्बर १९८८ में तत्कालीन राष्ट्रपति वेंकटरमण ने केन्द्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय को हिन्दी माध्यम से चिकित्सा शिक्षा हेतु निर्देशित किया था। मंत्रालय ने सभी हिन्दी प्रदेशों की सरकारों को इस विषय में कार्ययोजना बनाने के निर्देश दिए थे। गठित चिकित्सा शिक्षा समिति ने प्रतिवेदन में चिकित्सा शिक्षा और पैरामेडिकल शिक्षा हिन्दी में किए जाने की अनुशंसा की थी।

दिव्य सन्देश और देश का विकास-
चिकित्सा शिक्षा जैसे जटिल विज्ञान को हिन्दी में प्रस्तुत करवा कर मोदी जी ने देशभर के समस्त शिक्षाविदों और शिक्षण संस्थानों को स्पष्ट रूप से यह सन्देश और संकेत दे दिया है कि हिन्दी (भारतीय भाषाओं) का ध्वज यदि हिमालय पर फहराया जा सकता है तो अभियांत्रिकी आदि तथा के.जी., नर्सरी, विभिन्न स्तर की शालाओं में अंगरेजी के साम्राज्य को देश की १४० करोड़ जनता के हित में ध्वस्त कर दिया जाएगा। भविष्य में किसानों अथवा हिन्दी अथवा स्वभाषा में कम पढ़े-लिखे नागरिकों के नवाचारों और आविष्कारों को भाषाई कारणों से उपेक्षा और गुमनामी में नहीं जाने दिया जाएगा, देश के विकास में सौ प्रतिशत नागरिकों का योगदान सुनिश्चित किया जाएगा। हमारे कुटीर उद्योग फिर से जीवित होंगे, शहरों में धक्के खा रहे ग्रामीण पुनः गाँवों की तरफ लौटेंगे। अकल्पनीय बदलाव के साक्षी हम सब बनेंगे। यह सुचिन्तित निर्णय परिवर्तन की धुरी बनेगा।
प्रार्थना करिए कि हम विश्व गुरु बनें। प्रार्थना करिए कि हमारे देश के बच्चे अंगरेजी के आतंक से आत्मघाती नहीं बनें। भारतीय भाषाओं के विरुद्ध चल रहे कुत्सित प्रयासों को अपदस्थ करने में योगदान दीजिए, सक्रिय भागीदारी कीजिए।
जयहिन्द, जय भारत, जय हिन्दी, वन्देमातरम्।

(सौजन्य:वैश्विक हिंदी सम्मेलन, मुंबई)

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